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Thursday 8 March 2018

*वाकिआए में'राज* #14
بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ
اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ
*अर्शे उला से भी ऊपर*
     फिर मुस्तवा से आगे बढ़े तो अर्श आया, आप ﷺ उससे भी ऊपर तशरीफ़ लाए और फिर वहां पहुचे जहाँ खुद "कहाँ" और "कब" भी खत्म हो चुके थे क्योंकि ये अलफ़ाज़ जगह और ज़माने के लिये बोले जाते है और जहाँ हमारे आक़ा ﷺ रौनक अफ़रोज़ हुवे वहां न जगह थी न ज़माना। इसी वजह से इसे ला मकां कहा जाता है।
     यहाँ अल्लाह ने औने प्यारे महबूब ﷺ को वो क़ुर्बे ख़ास अता फ़रमाया कि न किसी को मिला न मिले। हदीस में इस बयान के लिये क़ा-ब क़ौसेन के अल्फ़ाज़ इस्तिमाल किये गए है। जिन्हें उस वक़्त इस्तिमाल किया जाता है जब इन्तिहाई कुर्ब और नज़दीकी बताना मक़सूद होता है।

*दीदार इलाही और हम कलामी का शरफ*
     हुज़ूर ﷺ ने बेदारी की हालत में सर की आँखों से अपने प्यारे रब का दीदार किया कि न पर्दा था न कोई हिजाब, न ज़माना था न कोई मकान, न फ़रिश्ता था न कोई इंसान, और बे वासिता कलाम का शरफ भी हासिल किया।
*✍🏼फ़ैज़ाने मेराज* 35
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मिट जाऐ गुनाहो का तसव्वुर ही दुन्या से,
गर होजाए यक़ीन के.....
*अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह देख रहा है...*
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