بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْـمٰـنِ الرَّحِـيْـمِ
اَلصَّــلٰـوةُ وَالسَّــلَامُ عَــلَـيْـكَ يَا رَسُــوْلَ اللّٰه ﷺ
और ऐ मेहबूब जब तुमसे मेरे बन्दे मुझे पूछें तो में नज़दीक हूँ (10) दुआ क़ुबूल करता हूं पुकारने वाले की जब मुझे पुकारते (11) तो उन्हें चाहिये मेरा हुक़्म माने और मुझपर ईमान लाएं कि कहीं राह पाएं.
*तफ़सीर*
(10) इसमें हक़ और सच्चाई चाहने वालों की उस तलब का बयान है जो अल्लाह को पाने की तलब है, जिन्हों ने अपने रब के इश्क़ में अपनी ज़रूरतों को क़ुरबान कर दिया, वो उसी के तलबगार हैं, उन्हें क़ुर्ब और मिलन की ख़ुशख़बरी सुनाकर खु़श किया गया. सहाबा की एक जमाअत ने अल्लाह के इश्क़ की भावना में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से पूछा कि हमारा रब कहाँ है, इस पर क़ुर्ब की ख़ुशख़बरी दी गई और बताया गया कि अल्लाह तआला मकान से पाक है. जो चीज़ किसी से मकानी क़ुर्ब रखती हो वह उसके दूर वाले से ज़रूर दूरी रखती है. और अल्लाह तआला सब बन्दों से क़रीब है. मकानी की यह शान नहीं. क़ुर्बत की मन्ज़िलों में पहुँने के लिये बन्दे को अपनी ग़फ़लत दूर करनी होती है.
(11) दुआ का मतलब है हाजत बयान करना और इजाबत यह है कि परवर्दिगार अपने बन्दे की दुआ पर“लब्बैका अब्दी” फ़रमाता है. मुराद अता फ़रमाना दूसरी चीज़ है. वह भी कभी उसके करम से फ़ौरन होती है, कभी उसकी हिकमत के तहत देरी से, कभी बन्दे की ज़रूरत दुनिया में पूरी फ़रमाई जाती है, कभी आख़िरत में, कभी बन्दे का नफ़ा दूसरी चीज़ में होता है, वह अता की जाती है. कभी बन्दा मेहबूब होता है, उसकी ज़रूरत पूरी करने में इसलिये देर की जाती है कि वह अर्से तक दुआ में लगा रहे, कभी दुआ करने वाले में सिद्क़ व इख़लास वग़ैरह शर्तें पूरी नहीं होतीं, इसलिये अल्लाह के नेक और मक़बूल बन्दों से दुआ कराई जाती है. नाजायज़ काम की दुआ कराना जायज़ नहीं. दुआ के आदाब में है कि नमाज़ के बाद हम्दो सना और दरूद शरीफ़ पढे़ फिर दुआ करे.
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मिट जाऐ गुनाहो का तसव्वुर ही दुन्या से,
गर होजाए यक़ीन के.....
*अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह देख रहा है...*
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*DEEN-E-NABI ﷺ*
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