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Sunday 13 January 2019

सूरतुल बक़रह, रुकुअ-26, आयत, ②①④*

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بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْـمٰـنِ الرَّحِـيْـمِ

اَلصَّــلٰـوةُ وَالسَّــلَامُ  عَــلَـيْـكَ يَا رَسُــوْلَ اللّٰه ﷺ

क्या इस गुमान (भ्रम) में हो कि जन्नत में चले जाओगे और कभी तुम पर अगलों की सी रूदाद (वृतांत) न (12) पहुंची उन्हें सख़्ती और शिद्दत (कठिनाई) और हिला हिला डाले गए यहाँ तक कि कह उठा रसूल (13) और उसके साथ के ईमान वाले, कब आएगी अल्लाह की मदद (14) सुन लो बेशक अल्लाह की मदद क़रीब है.


*तफ़सीर*

(12) और जैसी यातनाएं उन पर गुज़र चुकीं, अभी तक तुम्हें पेश न आई. यह आयत अहज़ाब की जंग के बारे में उतरी, जहाँ मुसलमानों को सर्दी और भूख वग़ैरह की सख़्त तकलीफ़ें पहुंची थीं. इस आयत में उन्हें सब्र का पाठ दिया गया और बताया गया कि अल्लाह की राह में तकलीफ़ें सहना पहले से ही अल्लाह के ख़ास बन्दों की विशेषता रही है. अभी तो तुम्हें पहलों की सी यातनाएं पहुंची भी नहीं हैं. बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत ख़ुबाब बिन अरत रदियल्लाहो अन्हो से रिवायत है कि हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम काबे के साए में अपनी चादरे मुबारक से तकिया लगाए तशरीफ़ फ़रमा थे. हमने हुज़ूर से अर्ज़ किया कि सरकार हमारे लिये क्यों दुआ नहीं फ़रमाते, हमारी क्यों मदद नहीं करते. फ़रमाया, तुमसे पहले लोग गिरफ़्तार किये जाते थे, ज़मीन में गढ़ा खोदकर  उसमें दबाए जाते थे,  आरे से चीर कर  दो टुकड़े कर डाले जाते थे और लोहे की कंघियों से उनके 

गोश्त नोचे जाते थे और इनमें की कोई मुसीबत उन्हें उनके दीन से रोक न सकती थी.

(13) यानी सख़्ती इस चरम सीमा पर पहुंच गई कि उन उम्मतों के रसूल और उनके फ़रमाँबरदार मूमिन भी मदद मांगने में जल्दी करने लगे. इसके बावजूद कि रसूल बड़े सब्र करने वाले होते हैं. और उनके साथी भी. लेकिन बावजूद इन सख़्ततरीन मुसीबतों के वो लोग अपने दीन पर क़ायम रहे और कोई मुसीबत और बला उनके हाल को बदल न सकी.

(14) इसके जवाब में उन्हें तसल्ली दी गई और यह इरशाद हुआ.

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मिट जाऐ गुनाहो का तसव्वुर ही दुन्या से, 

गर होजाए यक़ीन के.....

*अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह देख रहा है...*

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*​DEEN-E-NABI ﷺ*

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