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Monday 17 April 2017

*तर्जमए कन्ज़ुल ईमान व तफ़सीरे खज़ाइनुल इरफ़ान* #181
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*_सूरतुल बक़रह, आयत ②③⑨_*
     फिर अगर डर में हो तो प्यादा या सवार जैसे बन पड़े, फिर जब इत्मीनान से हो तो अल्लाह की याद करो जैसा उसने सिखाया जो तुम न जानते थे.

*_सूरतुल बक़रह, आयत ②④ⓞ_*
     और जो तुम में मरें और बीवियां छोड़ जाएं वो अपनी औरतों के लिये वसीयत कर जाएं (12) साल भर तक नान नफ़क़ा देने की बे निकाले (13) फिर अगर वो ख़ुद निकल जाएं तो तुम पर उसका कोई हिसाब नहीं जो उन्होंने अपने मामले में मुनासिब तौर पर किया और अल्लाह ग़ालिब हिकमत वाला है.
*तफ़सीर*
(12) अपने रिश्तेदारों को.
(13) इस्लाम की शुरूआत में विधवा की इद्दत एक साल की थी और पूरे एक साल व शौहर के यहाँ रहकर रोटी कपड़ा पाने की अधिकारी थी. फिर एक साल की इद्दत तो “यतरब्बसना बि अन्फ़ुसेहिन्ना अरबअता अशहुरिन व अशरा” (यानी चार माह दस दिन अपने आप को रोके रहें – सूरए बक़रह – आयत 234) से स्थगित हुई, जिसमें विधवा की इद्दत चार माह दस दिन निश्चित फ़रमा दी गई और साल भर का नान नफ़्क़ा मीरास की आयत से मन्सूख़ यानी रद्द हुआ जिसमें औरत का हिस्सा शौहर के छोड़े हुए माल से मुक़र्रर किया गया. लिहाज़ा अब वसिय्यत का हुक्म बाक़ी न रहा. हिकमत इसकी यह है कि अरब के लोग अपने पूर्वज की विधवा का निकलना या ग़ैर से निकाह करना बिल्कुल गवारा नहीं करते थे,  इसको बड़ी बेशर्मी समझते थे. इसलिये अगर एक दम चार माह दस रोज़ की इद्दत मुक़र्रर की जाती तो यह उन पर बहुत भारी होता. इसी लिये धीरे धीरे उन्हें राह पर लाया गया.

*_सूरतुल बक़रह, आयत ②④①_*
और तलाक वालियों के लिये भी मुनासिब तौर पर नान नफ़क़ा है ये वाजिब है परहेज़गारों पर.

*_सूरतुल बक़रह, आयत ②④②_*
अल्लाह यूं ही बयान करता है तुम्हारे लिये अपनी आयतें कि कहीं तुम्हें समझ हो.
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मिट जाए गुनाहो का तसव्वुर ही दुन्या से,
गर होजाए यक़ीन के.....
*अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह देख रहा है...*
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*​DEEN-E-NABI ﷺ*
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