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Monday 4 February 2019

*सूरतुल बक़रह, रुकुअ-31, आयत, ②③⑥*


بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْـمٰـنِ الرَّحِـيْـمِ

اَلصَّــلٰـوةُ وَالسَّــلَامُ  عَــلَـيْـكَ يَا رَسُــوْلَ اللّٰه ﷺ

तुम पर कुछ मुतालिबा (अभियाचना)  नहीं (1)  तुम औरतों को तलाक़ दो जब तक तुम ने उनको हाथ न लगाया हो या कोई मेहर (रक़म,दैन)  निश्चित कर लिया हो, (2) और उनको कुछ बरतने को दो. (3) हैसियत वाले पर उसके लायक़ और तंगदस्त पर उसके लायक़, दस्तूर के अनुसार कुछ बरतने की चीज़, ये वाजिब है भलाई वालों पर (4)


*तफ़सीर*

(1) मेहर का.

(2) यह आयत एक अन्सारी के बारे में नाज़िल हुई जिन्हों ने बनी हनीफ़ा क़बीले की एक औरत से निकाह किया और कोई मेहर निश्चित न किया. फिर हाथ लगाने से पहले तलाक़ दे दी. इससे मालूम हुआ कि जिस औरत का मेहर निश्चित न किया हो, अगर उसको छूने से पहले तलाक़ दे दी तो मेहर की अदायगी लाज़िम नहीं. हाथ लगाने या छूने से हम बिस्तरी मुराद है, और ख़िलवते सहीहा यानी भरपूर तनहाई उसके हुक्म में है. यह भी मालूम हुआ कि मेहर का ज़िक्र किये बिना भी निकाह दुरूस्त है, मगर उस सूरत में निकाह के बाद मेहर निश्चित करना होगा. अगर न किया तो हमबिस्तरी के बाद मेहरे मिस्ल लाज़िम हो जाएगा, यानी वो मेहर जो उसके ख़ानदान में दूसरों का बंधता चला आया है.

(3) तीन कपड़ों का एक जोड़ा.

(4) जिस औरत का मेहर मुक़र्रर न किया हो, उसको दुख़ूल यानी संभोग से पहले तलाक़ दी हो उसको तो जोड़ा देना वाजिब है. और इसके सिवा हर तलाक़ वाली औरत के लिये मुस्तहब है. (मदारिक)

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मिट जाऐ गुनाहो का तसव्वुर ही दुन्या से, 

गर होजाए यक़ीन के.....

*अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह देख रहा है...*

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*​DEEN-E-NABI ﷺ*

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