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Saturday 22 December 2018

सूरतुल बक़रह, रुकुअ-24, आयत, ①⑨ⓞ*

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بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْـمٰـنِ الرَّحِـيْـمِ

اَلصَّــلٰـوةُ وَالسَّــلَامُ  عَــلَـيْـكَ يَا رَسُــوْلَ اللّٰه ﷺ

और अल्लाह की राह में लड़ो(5) उनसे जो तुमसे लड़ते हैं (6) और हद से न बढ़ो(7) अल्लाह पसन्द नहीं रखता हद से बढ़ने वालों को.


*तफ़सीर*

     (5) सन छ हिजरी में हुदैबिया का वाक़िआ पेश आया. उस साल सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम मदीनए तैय्यिबह से उमरे के इरादे से मक्कए मुकर्रमा रवाना हुए. मुश्रिकों ने हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को मक्कए मुकर्रमा में दाख़िल होने से रोका और इस पर सुलह हुई कि आप अगले साल तशरीफ़ लाएं तो आपके लिये तीन रोज़ मक्कए मुकर्रमा ख़ाली कर दिया जाएगा. अगले साल सन सात हिजरी में हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम क़ज़ा उमरे के लिये तशरीफ़ लाए. अब हुज़ूर के साथ एक हज़ार चार सौ की जमाअत थी. मुसलमानों को यह डर हुआ कि काफ़िर अपने वचन का पालन न करेंगे और हरमे मक्का में पाबन्दी वाले महीने यानी ज़िलक़ाद के माह में जंग करेंगे और मुसलमान इहराम की हालत में हैं. इस हालत में जंग करना भारी है क्योंकि जाहिलियत के दिनों से इस्लाम की शुरूआत तक न हरम में जंग जायज़ थी न माहे हराम में, न हालते इहराम में. तो उन्हें फ़िक्र हुई कि इस वक़्त जंग की इजाज़त मिलती है या नहीं. इस पर यह आयत उतरी.

     (6) इसके मानी या तो ये हैं कि जो काफ़िर तुमसे लड़े या जंग की शुरूआत करें तुम उनसे दीन की हिमायत और इज़्ज़त के लिये लड़ो. यह हुक्म इस्लाम की शुरूआत में था, फिर स्थगित कर दिया गया और काफ़िरों से क़िताल या जंग करना वाजिब हुआ, चाहे वो शुरूआत करें या न करें. या ये मानी हैं कि जो तुम से लड़ने का इरादा रखते हैं, यह बात सारे ही काफ़िरों में है क्योंकि वो सब दीन के दुश्मन और मुसलमानों के मुख़ालिफ़ हैं, चाहे उन्होंने किसी वजह से जंग न की हो लेकिन मौक़ा पाने पर चूकने वाले नहीं. ये मानी भी हो सकते हैं कि जो काफ़िर मैदान में तुम्हारे सामने आएं और तुम से लड़ने वाले हों, उनसे लड़ो. उस सूरत में बूढ़े, बच्चे, पागल, अपाहिज, अन्धे, बीमार, औरतें वग़ैरह जो जंग की ताक़त नहीं रखते, इस हुक्म में दाख़िल न होंगे. उनका क़त्ल करना जायज़ नहीं.

     (7) जो जंग के क़ाबिल नहीं उनसे न लड़ो या जिनसे तुमने एहद किया हो या बगै़र दावत के जंग न करो क्योंकि शरई तरीक़ा यह है कि पहले काफ़िरों को इस्लाम की दावत दी जाए, अगर इन्कार करें तो जिज़िया माँगा जाए, उससे भी इन्कारी हों तो जंग की जाए. इस मानी पर आयत कर हुक्म बाक़ी है, स्थगित नहीं. (तफ़सीरे अहमदी)

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मिट जाऐ गुनाहो का तसव्वुर ही दुन्या से, 

गर होजाए यक़ीन के.....

*अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह देख रहा है...*

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