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Sunday 9 December 2018

सूरतुल बक़रह, रुकुअ-22, आयत, ①⑦⑦*

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بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْـمٰـنِ الرَّحِـيْـمِ

اَلصَّــلٰـوةُ وَالسَّــلَامُ  عَــلَـيْـكَ يَا رَسُــوْلَ اللّٰه ﷺ

कुछ अस्ल नेकी यह नहीं कि मुंह मश्रिक़ (पूर्व) या मग़रिब (पश्चिम) की तरफ़ करो (1) हाँ  अस्ल नेकी ये कि ईमान लाए अल्लाह और क़यामत और फ़रिश्तों और किताब और पैग़म्बर पर(2) और अल्लाह की महब्बत में अपना अज़ीज़ माल दे रिश्तेदारों और अनाथों और दरिद्रों और राहगीर और सायलों (याचकों) को और गर्दन छुड़ाने में (3) और नमाज़ क़ायम रखे और ज़कात दे, और अपना कहा पूरा करने वाले जब अहद करें, और सब्र वाले मुसीबत और सख़्ती में और जिहाद के वक़्त, यही हैं जिन्होंने अपनी बात सच्ची की, और यही परहेज़गार हैं.


*तफ़सीर*

     (1) यह आयत यहूदियों और ईसाइयों के बारे में नाज़िल हुई, क्योंकि यहूदियों ने बैतुल मक़दिस के पू्र्व को और ईसाइयों ने उसके पशिचम को क़िबला बना रखा था और हर पक्ष का ख़्याल था कि सिर्फ़ इस क़िबले ही की तरफ़ मुंह करना काफ़ी है. इस आयत में इसका रद फ़रमाया गया कि बैतुल मक़दिस का क़िबला होना स्थगित हो गया. (मदारिक). तफ़सीर करने वालों का एक क़ोल यह भी है कि यह सम्बोधन किताब वालों और ईमान वालों सब को आम है. और मानी ये हैं कि सिर्फ क़िबले की ओर मुंह कर लेना अस्ल नेकी नहीं जब तक अक़िदे दुरूस्त न हों और दिल सच्ची महब्बत के साथ क़िबले के रब की तरफ़ मुतवज्जेह न हो.

     (2) इस आयत में नेकी के छ: तरीक़े इरशाद फ़रमाए – (क) ईमान लाना (ख) माल देना (ग) नमाज़ कायम करना (घ)ज़कात देना (च) एहद पूरा करना (छ) सब्र करना. ईमान की तफ़सील यह है कि एक अल्लाह तआला पर ईमान लाए कि वह ज़िन्दा है, क़ायम रखने वाला है, इल्म वाला, हिकमत वाला, सुनने वाला, देखने वाला, देने वाला, क़ुदरत वाला, अज़ल से है, हमेशा के लिये है, एक है, उसका कोई शरीक नहीं. दूसरे क़यामत पर ईमान लाए कि वह सच्चाई है. उसमें बन्दों का हिसाब होगा, कर्मो का बदला दिया जाएगा . अल्लाह के प्रिय-जन शफ़ाअत करेंगा. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम सआदत-मन्दों या फ़रमाँबरदारों को हौज़े कौसर से जी भर कर पिलाएंगे, सिरात के पुल पर गुज़र होगा और उस रोज़ के सारे अहवाल जो क़ुरआन में आए या सैयदुल अम्बीया सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने बयान फ़रमाए, सब सत्य हैं. तीसरे, फ़रिश्तों पर ईमान लाए कि वो अल्लाह के पैदा किये हुए और फ़रमाँबरदार बन्दे हैं, न मर्द हैं, न औरत, उनकी तादाद अल्लाह ही जानता है . उनमें से चार बहुत नज़दीकी और बुज़ुर्गी वाले हैं, जिब्रईल, मीकाईल, इस्त्राफ़ील, इज़राईल (अल्लाह की सलामती उन सब पर). चौथे, अल्लाह की किताबों पर ईमान लाना कि जो किताब अल्लाह तआला ने उतारी, सच्ची है. उनमें चार बड़ी किताबें हैं – (1) तौरात हज़रत मूसा पर (2) इंजल हज़रत ईसा पर,(3) ज़ुबूर हज़रत दाऊद पर और (4) क़ुरआन हज़रत मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व अलैहिम अजमईन पर नाज़िल हुईं. और पचास सहीफ़े हज़रत शीस पर, तीस हज़रत इद्रीस पर, दस हज़रत आदम पर और दस हज़रत ईब्राहीम पर नाज़िल हुए. पाँचवें, सारे नबायों पर ईमान लाना कि वो सब अल्लाह के भेजे हुए हैं और मासूम यानी गुनाहों से पाक हैं. उनकी सही तादाद अल्लाह ही जानता है. उनमें 313 रसूल हैं. “नबिययीन” बहुवचन पुल्लिंग में ज़िक्र फ़रमाना इशारा करता है कि नबी मर्द होते हैं. कोई औरत कभी नबी नहीं हुई जैसा कि “वमा अरसलना मिन क़बलिका इल्ला रिजालन”‎(और हमने नहीं भेजे तुमसे पहले अपने रसूल मगर सिर्फ़ मर्द) सूरए नहल की 43वीं आयत से साबित है. ईमाने मुजमल यह है “आमन्तो बिल्लाहे व बिजमीए मा जाआ बिहिन नबिय्यो” (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) यानी मैं अल्लाह पर ईमान लाया और उन तमाम बातों पर जो नबियों के सरदार सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम अल्लाह के पास से लाए. (तफ़सीरे अहमदी)

      (3) ईमान के बाद कर्मो का और इस सिलसिले में माल देने का बयान फ़रमाया. इसके छः उपयोग ज़िक्र किये. गर्दनें छुड़ाने से ग़ुलामों का आज़ाद करना मुराद है. यह सब मुस्तहब तौर पर माल देने का बयान था. इस आयत से मालूम होता है कि सदक़ा देना, तनदुरूस्ती की हालत में ज़्यादा पुण्य रखता है, इसके विपरीत कि मरते वक़्त ज़िन्दगी से निराश होकर दे. हदीस शरीफ़ में है कि रिश्तेदार को सदक़ा देने में दो सवाब हैं, एक सदक़े का, दूसरा ज़रूरतमन्द रिश्तेदार के साथ मेहरबानी का. (नसाई शरीफ़)

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मिट जाऐ गुनाहो का तसव्वुर ही दुन्या से, 

गर होजाए यक़ीन के.....

*अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह देख रहा है...*

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