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Sunday 16 December 2018

*सूरतुल बक़रह, रुकुअ-23, आयत, ①⑧④*


بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْـمٰـنِ الرَّحِـيْـمِ

اَلصَّــلٰـوةُ وَالسَّــلَامُ  عَــلَـيْـكَ يَا رَسُــوْلَ اللّٰه ﷺ

गिनती के दिन है (3) तो तुम में जो कोई बीमार या सफ़र में हो (4) तो उतने रोज़े और दिनों में और जिन्हें इसकी ताक़त न हो वो बदला दें एक दरिद्र का खाना (5) फिर जो अपनी तरफ़ से नेकी ज़्यादा करे (6) तो वह उसके लिये बेहतर है, और रोज़ा रखना तुम्हारे लिये ज़्यादा भला है अगर तुम जानो (7)


*तफ़सीर*

     (3) यानी सिर्फ़ रमज़ान का एक महीना.

     (4) सफ़र से वह यात्रा मुराद है जिसकी दूरी तीन दिन से कम न हो. इस आयत में अल्लाह तआला ने बीमार और मूसाफ़िर को छूट दी कि अगर उसको रमज़ान में रोज़ा रखने से बीमारी बढ़ने का या मौत का डर हो या सफ़र में सख़्ती या तकलीफ़ का, तो बीमारी या सफ़र के दिनों में रोज़ा खोल दे और जब बीमारी और सफ़र से फ़ारिग़ होले, तो पाबन्दी वालें दिनों को छोड़कर और दिनों में उन छूटे हुए रोज़ों की क़ज़ा पूरी करे. पाबन्दी वाले दिन पांच है जिन में रोज़ा रखना जायज़ नहीं, दोनों ईदें और ज़िल्हज की ग्यारहवीं, बारहवीं और 13 वीं तारीख़. मरीज़ को केवल वहम पर रोज़ा खोल देना जायज़ नहीं. जब तक दलील या तजुर्बा या परहेज़गार और सच्चे तबीब की ख़बर से उसको यह यक़ीन न हो जाए कि रोज़ा रखने से बीमारी बढ जाएगी. जो शख़्स उस वक़्त बीमार न हो मगर मुसलमान तबीब यह कहे कि रोज़ा रखने से बीमार हो जाएगा, वह भी मरीज़ के हुक्म में है. गर्भवती या दूध पिलाने वाली औरत को अगर रोज़ा रखने से अपनी या बच्चे की जान का या उसके बीमार हो जाने का डर हो तो उसको भी रोज़ा खोल देना जायज़ है. जिस मुसाफ़िर ने फ़ज्र तुलू होने से पहले सफ़र शुरू किया उसको तो रोज़े का खोलना जायज़ है, लेकिन जिसने फ़ज्र निकलने के बाद सफ़र किया, उसको उस दिन का रोज़ा खोलना जायज़ नहीं.

     (5) जिस बूढे मर्द या औरत को बुढ़ापे की कमज़ोरी के कारण रोज़ा रखने की ताक़त न रहे और आगे भी ताक़त हासिल करने की उम्मीद न हो, उसको शैख़े फ़ानी कहते हैं. उसके लिये जायज़ है कि रोज़ा खोल दे और हर रोजे़ के बदले एक सौ पछहत्तर रूपये और एक अठन्नी भर गेहूँ या गेहूँ का आटा उससे दुगने जौ या उसकी क़ीमत फ़िदिया के तौर पर दे. अगर फिदिया देने के बाद रोज़ा रखने की ताक़त आ गई तो रोज़ा वाजिब होगा. अगर शैख़े फ़ानी नादार हो और फिदिया देने की क्षमता न रखता हो तो अल्लाह तआला से अपने गुनाहों की माफ़ी माँगता रहे और दुआ व तौबा में लगा रहे.

     (6) यानी फ़िदिया की मिक़दार से ज़्यादा दे.

     (7) इससे मालूम हुआ कि अगरचे मुसाफ़िर और मरीज़ को रोज़ा खोलने की इजाज़त है लेकिन बेहतरी रोज़ा रखने में ही है.

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मिट जाऐ गुनाहो का तसव्वुर ही दुन्या से, 

गर होजाए यक़ीन के.....

*अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह देख रहा है...*

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