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Wednesday 15 March 2017

*तर्जमए कन्ज़ुल ईमान व तफ़सीरे खज़ाइनुल इरफ़ान* #171
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*_सूरतुल बक़रह, आयत ②②⑥_*
     और वो जो क़सम खा बैठते हैं अपनी औरतों के पास न जाने की उन्हें चार महीने की मोहलत है तो अगर इस मुद्दत में फिर आए तो अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है.

*_सूरतुल बक़रह, आयत ②②⑦_*
     और अगर छोड़ देने का इरादा पक्का कर लिया तो अल्लाह सुनता जानता है.
*तफ़सीर*
     जाहिलियत के दिनों में लोगों का यह तरीक़ा था कि अपनी औरतों से माल तलब करते, अगर वह देने से इन्कार करतीं तो एक साल, दो साल, तीन साल या इससे ज़्यादा समय तक उनके पास ना जाते और उनके साथ सहवास न करने की क़सम खा लेते थे और उन्हें परेशानी में छोड़ देते थे. न वो बेवा ही थीं कि कहीं अपना ठिकाना कर लेतीं, न शौहर वाली कि शौहर से आराम पातीं.
     इस्लाम ने इस अत्याचार को मिटाया और ऐसी क़सम खाने वालों के लिये चार महीने की मुद्दत निश्चित फ़रमादी कि अगर औरत से चार माह के लिये सोहबत न करने की क़सम खाले जिसको ईला कहते हैं तो उसके लिये चार माह इन्तिज़ार की मोहलत है. इस अर्से में ख़ूब सोच समझ ले कि औरत को छोड़ना उसके लिये बेहतर है या रखना. अगर रखना बेहतर समझे और इस मुद्दत के अन्दर रूजू करले तो निकाह बाक़ी रहेगा और क़सम का कफ़्फ़ारा लाज़िम आएगा, और अगर इस मुद्दत में रूजू न किया और क़सम न तोड़ी तो औरत निकाह से बाहर हो गई और उस पर तलाक़े बायन वाक़े हो गई. अगर मर्द सहवास की क्षमता रखता हो तो रूजू हमबिस्तरी से ही होगा और अगर किसी वजह से ताक़त न हो तो ताक़त आने के बाद सोहबत का वादा रूजू है. (तफ़सीरे अहमदी)
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मिट जाए गुनाहो का तसव्वुर ही दुन्या से,
गर होजाए यक़ीन के.....
*अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह देख रहा है...*
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*​DEEN-E-NABI ﷺ*
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