بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ
اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ
और वो कि ईमान लाएं उस पर जो ए मेहबूब तुम्हारी तरफ़ उतरा और जो तुम से पहले उतरा (8), और आख़िरत पर यक़ीन रख़े (9)
*तफ़सीर*
(8) इस आयत में किताब वालों से वो ईमान वाले मुराद हैं जो अपनी किताब और सारी पिछली किताबों और
नबियों (अल्लाह के दुरूद और सलाम हों उनपर) पर भेजे गए अल्लाह के आदेशों पर भी ईमान लाए और क़ुरआन शरीफ़ पर भी. और “मा उन्जिला इलैका” (जो तुम्हारी तरफ़ उतरा) से तमाम क़ुरआन शरीफ़ और सारी शरीअत मुराद है. (जुमल)
जिस तरह क़ुरआन शरीफ़ पर ईमान लाना हर मुसलमान के लिये ज़रूरी है उसी तरह पिछली आसमानी किताबों पर ईमान लाना भी अनिवार्य है जो अल्लाह तआला ने हुज़ूर (अल्लाह के दुरूद और सलाम हो उनपर) से पहले नबियों पर उतारीं. अलबत्ता उन किताबों के जो अहकाम या आदेश हमारी शरीअत में मन्सूख़ या स्थगित कर दिये गए उन पर अमल करना दुरूस्त नहीं, मगर ईमान रखना ज़रूरी है. जैसे पिछली शरीअतों में बैतुल मक़दिस क़िबला था, इसपर ईमान लाना तो हमारे लिये ज़रूरी है मगर अमल यानी नमाज़ में बैतुल मक़दिस की तरफ़ मुंह करना जायज़ नहीं, यह हुक्म उठा लिया गया.
क़ुरआन शरीफ़ से पहले जो कुछ अल्लाह तआला की तरफ़ से उसके नबियों पर उतरा उन सब पर सामूहिक रूप से ईमान लाना फ़र्ज़े एन और क़ुरआन शरीफ़ में जो कुछ है उस पर ईमान लाना फ़र्ज़े किफ़ाया है, इसीलिये आम आदमी पर क़ुरआन शरीफ़ की तफसीलात की जानकारी फ़र्ज़ नहीं जबकि क़ुरआन शरीफ़ के जानकार मौजूद हों जिन्होंने क़ुरआन के ज्ञान को हासिल करने में पूरी मेहनत की हो.
(9) यानी दूसरी दुनिया और जो कुछ उसमें है, अच्छाइयों और बुराइयों का हिसाब वग़ैरह सब पर एेसा यक़ीन और इत्मीनान रखते हैं कि ज़रा शक और शुबह नहीं, इसमें एहले किताब (ईसाई और यहूदी)और काफ़िरों वग़ैरह से बेज़ारी है जो आख़िरत यानी दूसरी दुनिया के बारे में ग़लत विचार रखते हैं.
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मिट जाऐ गुनाहो का तसव्वुर ही दुन्या से,
गर होजाए यक़ीन के.....
*अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह देख रहा है...*
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Tuesday 10 July 2018
*सूरतुल बक़रह, रुकुअ-1, आयत, ④*
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