#26
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*
*_सूरतुल बक़रह, आयत ②①_*
ऐ लोगों(1)
अपने रब को पूजो जिसने तुम्हें और तुम से अगलों को पैदा किया ये उम्मीद करते हुए कि तुम्हें परहेज़गारी मिले (2)
*तफ़सीर*
(1) सूरत के शुरू में बताया गया कि यह किताब अल्लाह से डरने वालों की हिदायत के लिये उतारी गई है, फिर डरने वालों की विशेषताओ का ज़िक्र फरमाया, इसके बाद इससे मुंह फेरने वाले समुदायो का और उनके हालात का ज़िक्र फरमाया कि फ़रमांबरदार और क़िस्मत वाले इन्सान हिदायत और तक़वा की तरफ़ राग़िब हों और नाफ़रमानी व बग़ावत से बचें.
अब तक़वा हासिल करने का तरीक़ा बताया जा रहा है. “ऐ लोगो” का ख़िताब (सम्बोधन) अकसर मक्के वालों को और “ऐ ईमान वालों” का सम्बोधन मदीने वालों को होता है. मगर यहां यह सम्बोधन ईमान वालों और काफ़िर सब को आम है, इसमें इशारा है कि इन्सानी शराफ़त इसी में है कि आदमी अल्लाह से डरे यानी तक़वा हासिल करे और इबादत में लगा रहे.
इबादत वह संस्कार (बंदगी) है जो बन्दा अपनी अब्दीयत और माबूद की उलूहियत (ख़ुदा होना) के एतिक़ाद और एतिराफ़ के साथ पूरे करे. यहां इबादत आम है अर्थात पूजा पाठ की सारी विधियों, तमाम उसूल और तरीको को समोए हुए है. काफ़िर इबादत के मामूर (हुक्म किये गए) हैं जिस तरह बेवुज़ू नमाज़ के फर्ज़ होने को नहीं रोकता उसी तरह काफ़िर होना इबादत के वाजिब होने को मना नहीं करता और जैसे बेवुज़ू व्यक्ति पर नमाज़ की अनिवार्यता बदन की पाकी को ज़रूरी बनाती है ऐसे ही काफ़िर पर इबादत के वाजिब होने से कुफ़्र का छोड़ना अनिवार्य ठहरता है.
(2) इससे मालूम हुआ कि इ़बादत का फ़ायदा इबादत करने वाले ही को मिलता है, अल्लाह तआला इससे पाक है कि उसको इबादत या और किसी चीज़ से नफ़ा हासिल हो.
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*DEEN-E-NABI ﷺ*
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अब तक़वा हासिल करने का तरीक़ा बताया जा रहा है. “ऐ लोगो” का ख़िताब (सम्बोधन) अकसर मक्के वालों को और “ऐ ईमान वालों” का सम्बोधन मदीने वालों को होता है. मगर यहां यह सम्बोधन ईमान वालों और काफ़िर सब को आम है, इसमें इशारा है कि इन्सानी शराफ़त इसी में है कि आदमी अल्लाह से डरे यानी तक़वा हासिल करे और इबादत में लगा रहे.
इबादत वह संस्कार (बंदगी) है जो बन्दा अपनी अब्दीयत और माबूद की उलूहियत (ख़ुदा होना) के एतिक़ाद और एतिराफ़ के साथ पूरे करे. यहां इबादत आम है अर्थात पूजा पाठ की सारी विधियों, तमाम उसूल और तरीको को समोए हुए है. काफ़िर इबादत के मामूर (हुक्म किये गए) हैं जिस तरह बेवुज़ू नमाज़ के फर्ज़ होने को नहीं रोकता उसी तरह काफ़िर होना इबादत के वाजिब होने को मना नहीं करता और जैसे बेवुज़ू व्यक्ति पर नमाज़ की अनिवार्यता बदन की पाकी को ज़रूरी बनाती है ऐसे ही काफ़िर पर इबादत के वाजिब होने से कुफ़्र का छोड़ना अनिवार्य ठहरता है.
(2) इससे मालूम हुआ कि इ़बादत का फ़ायदा इबादत करने वाले ही को मिलता है, अल्लाह तआला इससे पाक है कि उसको इबादत या और किसी चीज़ से नफ़ा हासिल हो.
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