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Wednesday 7 September 2016

तर्जमए कन्ज़ुल ईमान व तफ़सीरे खज़ाइनुल इरफ़ान

#29
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*_सूरतुल बक़रह, आयत ②⑥_*
बेशक अल्लाह इस से हया नहीं फ़रमाता कि मिसाल समझाने को कैसी ही चीज़ का जि़क्र या वर्णन फ़रमाए मच्छर हो या उससे बढ़कर(1)
तो वो जो ईमान लाए वो तो जानते हैं कि यह उनके रब की तरफ़ से हक़ (सत्य) है (2)
रहे काफ़िर वो कहते हैं एसी कहावत में अल्लाह का क्या मक़सूद है, अल्लाह बहत्तरो को इससे गुमराह करता है (3)
और बहत्तर को हिदायत फ़रमाता है और उससे उन्हें गुमराह करता है जो बेहुक्म हैं (4)

*तफ़सीर*
     (1) जब अल्लाह तआला ने आयत *मसलुहुम कमसलिल लज़िस्तौक़दा नारा* (उनकी कहावत उसकी तरह है जिसने आग रौशन की) और आयत *कसैय्यिबिम मिनस समाए* (जैसे आसमान से उतरता पानी) में मुनाफ़िक़ो की दो मिसालें बयान फ़रमाई तो मुनाफ़िको ने एतिराज किया कि अल्लाह तआला इससे बालातर है कि ऐसी मिसालें बयान फ़रमाए. उसके रद में यह आयत उतरी.
     (2) चूंकि मिसालों का बयान हिकमत (जानकारी, बोध) देने और मज़मून को दिल में घर करने वाला बनाने के लिये होता है और अरब के अच्छी ज़बान वालों का तरीक़ा है, इसलिये मुनाफ़िक़ो का यह एतिराज ग़लत और बेजा है और मिसालों का बयान सच्चाई से भरपूर है.
     (3) "युदिल्लो बिही" (इससे गुमराह करता है) काफ़िरों के उस कथन का जवाब है कि अल्लाह का इस कहावत से क्या मतलब है.
     “अम्मल लज़ीना आमनू” (वो जो ईमान लाए) और “अम्मल लज़ीना कफ़रू”(वो जो काफ़िर रहे), ये दो जुम्ले जो ऊपर इरशाद हुए, उनकी तफ़सीर है कि इस कहावत या मिसाल से बहुतो को गुमराह करता है जिनकी अक़्लो पर अज्ञानता या जिहालत ने ग़लबा किया है और जिनकी आदत बड़ाई छांटना और दुश्मनी पालना है और जो हक़ बात और खुली हिकमत के इन्कार और विरोध के आदी हैं और इसके बावजूद कि यह मिसाल बहुत मुनासिब है,
     फिर भी इन्कार करते हैं और इससे अल्लाह तआला बहुतों को हिदायत फ़रमाता है जो ग़ौर और तहक़ीक़ के आदी हैं और इन्साफ के ख़िलाफ बात नही कहते कि हिकमत (बोध) यही है कि बड़े रूत्बे वाली चीज़ की मिसाल किसी क़द्र वाली चीज़ से और हक़ीर (तुच्छ) चीज़ की अदना चीज़ से दी जाए जैसा कि ऊपर की आयत में हक़ (सच्चाई) की नूर (प्रकाश) से और बातिल (असत्य) की ज़ुलमत (अंधेरे) से मिसाल दी गई.
     (4) शरीअत में फ़ासिक़ उस नाफ़रमान को कहते हैं जो बड़े गुनाह करे. “फिस्क़” के तीन दर्जे हैं – एक तग़ाबी, वह यह कि आदमी इत्तिफ़ाक़िया किसी गुनाह का मुर्तकिब (करने वाला) हुआ और उसको बुरा ही जानता रहा, दूसरा इन्हिमाक कि बड़े गुनाहों का आदी हो गया और उनसे बचने की परवाह न रही, तीसरा जुहूद कि हराम को अच्छा जान कर इर्तिकाब करे.
     इस दर्जे वाला ईमान से मेहरूम हो जाता है, पहले दो दर्जो में जब तक बड़ो में बड़े गुनाह (शिर्क व कुफ़्र) का इर्तिकाब न करे, उस पर मूमिन का इतलाक़ (लागू होना) होता है, यहां “फ़ासिकीन” (बेहुक्म) से वही नाफ़रमान मुराद हैं जो ईमान से बाहर हो गए. क़ुरआने करीम में काफ़िरों पर भी फ़ासिक़ का इत्लाक़ हुआ है: इन्नल मुनाफ़िक़ीना हुमुल फ़ासिक़ून” *(सूरए तौबह, आयत 67)* यानी बेशक मुनाफिक़ वही पक्के बेहुक्म है. कुछ तफ़सीर करने वालों ने यहां फ़ासिक़ से काफ़िर मुराद लिये कुछ ने मुनाफिक़, कुछ ने यहूद.
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