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Monday 4 July 2016

तफ़सीरे अशरफी


हिस्सा-29
*सूरए बक़रह_पारह 01*
*بِسْــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*الصــلوة والسلام‎ عليك‎ ‎يارسول‎ الله ﷺ*

*आयत ②⑧_तर्जुमह*
कैसे मुनकिर हो अल्लाह के, हाला के तुम बे-जान थे, तो हयात दी तुम्हे। फिर मौत देगा तुम्हे। फिर जिलाएगा तुमको। फिर उसीकी तरफ लौटाए जाएंगे।

*तफ़सीर*
अय काफिरो ! बड़े तअज्जुब की बात है के आंखिर तुम लोग (कैसे मुनकिर हो अल्लाह के), हालांके तुमको सोचना चाहिये और देख भी रहे हो के तुम मुर्दा और जिसमे (बे जान थे)।
आग, पानी, मिटटी, हवा में थे। फिर ग़िज़ा बने। फिर खिलतो की सूरत पाई। फिर नुत्फा की शक्ल हुई। लोथड़े से बोटी और बोटी से सारा जिस्म हुवा। मगर क्या अल्लाह की क़ुदरत है के जिस्म में जान न नथी। तो उसने जान अता की और (हयात दी तुम्हे)।
और ज़ाहिर है के जो ज़िंदा कर सकता है, वो मार भी सकता है। चुनान्चे फिर वही मौत देगा। और बे मारे जिलानेवाला मार कर भी जिला सकता है।
चुनान्चे क़ब्र में सवाल करने के लिए, और हशर में हिसाब-किताब के लिये फिर अल्लाह तआला जिलाएगा तुमको। गर्ज़ फिर उसी की तरफ तुम लोग सबके सब लौटाए जाओगे।
ये होना है। ख्वाह तुम्हारा जी चाहे, या न कहे। और भला मुसलमानो ! तुम कैसे उन अंधे काफिरो की तरफ अल्लाह का इनकार कर सकते हो ? उन काफिरो को सूझे या न सूझे। मगर अल्लाह के फ़ज़लसे तुमको साफ़ नज़र आ रहा है, के जिसमे बे जान थे। तो ज़िंदा हुए। फिर मरना है। फिर ज़िंदा होंगे और अपने रबके पास लौटोगे। और उसकी नेअमतों को जी भर कर खूब लूटोगे। तुमसे इनकार की उम्मीद रखना काफिरो की बड़ी बेवुक़ूफ़ि है।
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