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Thursday 5 January 2017

*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ*​ #11
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*इसाले षवाब-मुर्दो को षवाब पहचना* #05
*_औलिया अल्लाह की नज़्र, नियाज़, मन्नत_*
     *सवाल :* कुछ लोग कहते है को, औलिया अल्लाह के नाम जो नज़्र मानी जाती है वो शिर्क है। क्या ये सही है ?
     *जवाब :* सरासर गलत है। औलिया अल्लाह के नाम जो नज़्र मानी जाती है वो शराइ नज़्र नही, बल्कि उर्फी है। नज़्र की 2 किस्मे है :-
     ★ शरई नज़्र
     ★ उर्फी नज़्र
     शराइ नज़्र उसे कहते है किसी गेर ज़रूरी इबादत को अपने ऊपर ज़रूरी कर लेना। और इबादत उसे कहते है किसी को मअबूद, खुदा मान कर उसे खुश करने के लिए कोई काम करना।
     जब की उर्फी नज़्र आम लोगो की बोली में हदया, तोहफा, नज़राना को कहा जाता है। जेसे कोई कहता है की, "या गौषे पाक ! आप दुआ फरमाये! अगर मेरा मरज़ अच्छा हो गया तो में आपके नाम की देगा पकाउंगा।"
     इसका मतलब ये नही होता की "आप मेरे खुदा है, मअबूद है इस बीमारी से अच्छा होने पर में आप की इबादत करूँगा।"
     बल्कि ये मतलब होता है की "में बिरयानी, हलीम, खीर या सदक़ा करूँगा अल्लाह के लिये और उस पर जो षवाब मिलेगा वो सरकार गौषे पाक को बख्शुंग।"
     जेसे कोई किसी डॉ. से कहे अगर बीमार अच्छा हो गया तो 500 रु. आप को तोहफा दूंगा, आपकी नज़्र करूँगा। इसमें क्या गुनाह है ?

     नज़्र शरई अल्लाह के सिवा किसी की मानना जायज़ नही जबकि नज़्र उर्फी बुज़ुर्गाने दिन, औलिया अल्लाह के लिये उनकी ज़ाहिरी हयाती या बातिनी हयाती में पेश की जाती है। जो जायज़ है।
      हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस दहलवी अलैरहमा के भाई शाह रफीउद्दीन साहब "रिसाला नुजूर" में लिखते है : नज़्र का शब्द जो की यहाँ इस्तेमाल होता है, शरई अर्थ पर नही इसलिए की अवाम की बोली में जो कुछ बुज़ुर्गो के यहाँ ले जाते है उसे "नज़्र व नियाज़" कहते है।
     हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस दहलवी अलैरहमा "फतवा अजीजिया जी.1 सफा 78 में फरमाये है : जो खाना कि हज़राते हसनैन को नियाज़ करे उस पर फातिहा, कुल, और दुरुद पढ़ना षवाब और बरकत वाला है। और उसका खाना बहुत अच्छा है।
     हज़रत मुहद्दिस दहलवी अलैरहमा के फरमान के मुताबिक़ नज़्र व नियाज़ करना भी साबित हुआ और साथ ही फातिहा पढ़ना और उसका खाना तबर्रुक भी।
     इसी फतवा अजीजिया में है : अगर मिलाद और चावलों की खीर किसी बुज़ुर्ग के लिये इसाले षवाब की नियत से पका कर खिलाये तो कोई हर्ज नही है, जायज़ है। फिर फ़रमाया : अगर फातिहा किसी बुज़ुर्ग के नाम किया गया तो मालदारों को भी खाना जायज़ है।
*✍🏽जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ, 12*
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