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Sunday 1 January 2017

*तर्जमए कन्ज़ुल ईमान व तफ़सीरे खज़ाइनुल इरफ़ान* #117
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*_सूरतुल बक़रह, आयत ①⑤⑧_*
     बेशक सफ़ा और मर्वा (पहाड़ियां) (7)
अल्लाह के निशानों से हैं (8)
तो जो उस घर का हज या उमरा करे उस पर कुछ गुनाह नहीं कि इन दोनों के फेरे करे (9)
और जो कोई भली बात अपनी तरफ़ से करे तो अल्लाह नेकी का सिला (इनाम) देने वाला ख़बरदार है.

*तफ़सीर*
     (7) सफ़ा और मर्वा मक्कए मुकर्रमा के दो पहाड़ हैं, जो काबे के सामने पूर्व की और स्थित हैं. मर्वा उत्तर की तरफ़ झुका हुआ और सफ़ा दक्षिण की तरफ़ जबले अबू क़ुबैस के दामन में है.
     हज़रत हाजिरा और हज़रत इस्माईल ने इन दोनों पहाड़ों के क़रीब उस मक़ाम पर जहाँ ज़मज़म का कुआँ है, अल्लाह के हुक्म से सुकूनत इख़्तियार की. उस वक़्त यह जगह पथरीली वीरान थी, न यहाँ हरियाली थी न पानी, न खाने पीने का कोई साधन. अल्लाह की खुशी के लिये इन अल्लाह के प्यारे बन्दों ने सब्र किया. हज़रत इस्माईल बहुत छोटे से थे, प्यास से जब उनकी हालत नाजुक हो गई तो हज़रत हाजिरा बेचैन होकर सफ़ा पहाड़ी पर तशरीफ़ ले गई. वहाँ भी पानी न पाया तो उतर कर नीचे के मैदान में दौड़ती हुई मर्वा तक पहुंचीं. इस तरह सात बार दोनों पहाड़ियों के बीच दौड़ीं और अल्लाह तआला ने "इन्नल्लाहा मअस साबिरीन" (अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है) का जलवा इस तरह ज़ाहिर फ़रमाया कि ग़ैब से एक चश्मा ज़मज़म नमूदार किया और उनके सब्र और महब्बत की बरकत से उनके अनुकरण में इन दोनों पहाड़ियों के बीच दौड़ने वालों को अपना प्यारा किया और इन दोनों जगहों को दुआ क़ुबूल होने की जगहें बनाया.
     (8) “शआइरिल्लाह” से दीन की निशानियाँ मुराद हैं, चाहे वो मकानात हों जैसे काबा, अरफ़ात, मुज़्दलिफ़ा, शैतान को कंकरी मारने की तीनों जगहें, सफ़ा, मर्वा, मिना मस्जिदें, या ज़माने जैसे रम़जान, ज़िलक़ाद, ज़िलहज्ज और मुहर्रम के महीने, ईदुल फ़ित्र, ईदुल अज़हा, जुमा, अय्यामे तशरीक़ यानी दस, ग्यारह, बारह, तेरह ज़िल हज्जा, या दूसरे चिन्ह जैसे अज़ान, अक़ामत, बा-जमाअत नमाज़, जुमे की नमाज़, ईद की नमाज़ें, ख़तना, ये सब दीन की निशानियाँ हैं.
     (9) इस्लाम से पहले के दिनों में सफ़ा और मर्वा पर दो मूर्तियाँ रखी थीं. सफ़ा पर जो मूर्ति थी उसका नाम असाफ़ था और जो मर्वा पर थी उसकानाम नायला था. काफ़िर जब सफ़ा और मर्वा के बीच सई करते या दौड़ते तो उन मूर्तियों पर अदब से हाथ फेरते. इस्लाम के एहद में बुत तो तोड़ दिये गए थे लेकिन चूंकि काफ़िर यहाँ शिर्क के काम करते थे इसलिये मुसलमानों को सफ़ा और मर्वा के बीच सई करना भारी लगा कि इसमें काफ़िरों के शिर्क के कामों के साथ कुछ मुशाबिहत है. इस आयत में उनका इत्मीनान फ़रमा दिया गया कि चूंकि तुम्हारी नियत ख़ालिस अल्लाह की इबादत की है, तुम्हें मुशाबिहत का डर नहीं करना चाहिये और जिस तरह काबे के अन्दर जाहिलियत के दौर में काफ़िरों ने मूर्तियाँ रखी थीं, अब इस्लाम के एहद में वो मूर्तियाँ उठा दी गई याँ काबे का तवाफ़ दुरूस्त रहा और वह दीन की निशानियों में से रहा, उसी तरह काफ़िरों की बुत परस्ती से सफ़ा और मर्वा के दीन की निशानी होने में कोई फ़र्क़ नहीं आया.
     सई (यानी सफ़ा और मर्वा के बीच दौड़ना) वाजिब है, हदीस से साबित है. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने हमेशा इसे किया है. इसे छोड़ देने से दम यानी क़ुर्बानी वाजिब हो जाती है. सफ़ा और मर्वा के बीच दौड़ना हज और उमरा दोनों में ज़रूरी है. फ़र्क़ यह है कि हज के अन्दर अरफ़ात में जाना और वहाँ से काबे के तवाफ़ के लिये आना शर्त है. और उमरे के लिये अरफ़ात में जाना शर्त नहीं. उमरा करने वाला अगर मक्का के बाहर से आए, उसका सीधे मक्कए मुकर्रमा में आकर तवाफ़ करना चाहिये और अगर मक्के का रहने वाला हो, तो उसको चाहिये कि हरम से बाहर जाए, वहाँ से काबे के तवाफ़ के लिये एहराम बाँधकर आए.
     हज व उमरा में एक फ़र्क़ यह भी है कि हज साल में एक ही बार हो सकता है, क्योंकि अरफ़ात में अरफ़े के दिन यानी ज़िलहज्जा की नौ तारीख़ को जाना, जो हज में शर्त है, साल में एक बार ही सम्भव हो सकता है. उमरा हर दिन हो सकता है, इसके लिये कोई वक़्त निर्धारित नहीं है.
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