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Monday 31 October 2016

*तर्जमए कन्ज़ुल ईमान व तफ़सीरे खज़ाइनुल इरफ़ान* #64
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*_​​सूरतुल बक़रह, आयत ⑦④_*
फिर उसके बाद तुम्हारे दिल सख्त़ हो गये (3)
तो वह पत्थरों जैसे है बल्कि उनसे भी ज्य़ादा करें और पत्थरों में तो कुछ वो हैं जिनसे नदियां बह निकलती हैं और कुछ वो है जो फट जाते हैं तो उनसे पानी निकलता हैं और कुछ वो हैं जो अल्लाह के डर से गिर पड़ते हैं (4)
और अल्लाह तुम्हारे कौतुकों से बेख़बर नहीं

*तफ़सीर*
     (3) क़ुदरत की ऐसी बड़ी निशानियों से तुमने इबरत हासिल न की.
     (4) इसके बावुजूद तुम्हारे दिल असर क़ुबूल नहीं करते. पत्थरों में अल्लाह ने समझ और शऊर दिया है, उन्हें अल्लाह का ख़ौफ़ होता है, वो तस्बीह करते हैं इम मिन शैइन इल्ला युसब्बिहो बिहम्दिही यानी कोई चीज़ ऐसी नहीं जो अल्लाह की तारीफ़ में उसकी पाकी न बोलती हो. (सूरए बनी इस्त्राईल, आयत 44). मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत जाबिर (अल्लाह उनसे राज़ी) से रिवायत है कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया मैं उस पत्थर को पहचानता हूँ जो मेरी नबुव्वत के इज़्हार से पहले मुझे सलाम किया करता था, तिरमिज़ी में हज़रत अली (अल्लाह उनसे राज़ी) से रिवायत है कि मैं सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ मक्का के आस पास के इलाक़े में गया. जो पेड़ या पहाड़ सामने आता था अस्सलामो अलैका या रसूलल्लाह अर्ज़ करता था.

*_​​सूरतुल बक़रह, आयत ⑦⑤_*
तो ऐ मुसलमानों, क्या तुम्हें यह लालच है कि यहूदी तुम्हारा यक़ीन लाएंगे और उनमें का तो एक समूह वह था कि अल्लाह का कलाम सुनते फिर समझने के बाद उसे जान बूझकर बदल देते

*तगसिर*
     जैसे उन्होंने तौरात में कतर ब्योंत की और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तारीफ़ के अल्फ़ाज़ बदल डाले.
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