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Friday 23 December 2016

*तर्जमए कन्ज़ुल ईमान व तफ़सीरे खज़ाइनुल इरफ़ान* #108
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*_सूरतुल बक़रह, आयत ①④③_*
     और बात यूं ही है कि हमने तुम्हें किया सब उम्मतों से अफ़ज़ल, कि तुम लोगों पर गवाह हो(4)
और ये रसूल तुम्हारे निगहबान और गवाह(5)
और ऐ मेहबूब तुम पहले जिस क़िबले पर थे हमने वह इसी लिये मुक़र्रर (निश्चित) किया था कि देखें कौन रसूल के पीछे चलता है और कौन उल्टे पांव फिर जाता है(6)
और बेशक यह भारी थी मगर उनपर, जिन्हें अल्लाह ने हिदायत की, और अल्लाह की शान नहीं कि तुम्हारा ईमान अकारत करे(7)
बेशक अल्लाह आदमियों पर बहुत मेहरबान, मेहर (कृपा) वाला है और.

*तफ़सीर*
     (4) दुनिया और आख़िरत में. दुनिया में तो यह कि मुसलमान की गवाही ईमान वाले और काफ़िर सबके हक़ में शरई तौर से भरोसे वाली है और काफ़िर की गवाही मुसलमान पर माने जाने के क़ाबिल नहीं. इससे यह भी मालूम हुआ कि किसी बात पर इस उम्मत की सर्वसहमति अनिवार्य रूप से क़ुबूल किय जाने योग्य है. गुज़रे लोगों के हक़ में भी इस उम्मत की गवाही मानी जाएगी. रहमत और अज़ाब के फ़रिश्ते उसके मुताबिक अमल करते हैं.
     सही हदीस की किताबों में है कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के सामने एक जनाज़ा गुज़रा. आपके साथियों ने उसकी तारीफ़ की. हुज़ूर ने फ़रमाया “वाजिब हुई”. फिर दूसरा जनाज़ा गुज़रा. सहाबा ने उसकी बुराई की. हुज़ूर ने फ़रमाया “वाजिब हुई”. हज़रत उतर ने पूछा कि हुज़ूर क्या चीज़ वाजिब हुई? फ़रमाया : पहले जनाज़े की तुमने तारीफ़ की, उसके लिये जन्नत वाजिब हुई. दूसरे की तुमने बुराई की, उसके लिये दोज़ख वाजिब हुई. तुम ज़मीन में अल्लाह के गवाह हो. फिर हुज़ूर ने यह आयत तिलावत फ़रमाई. ये तमाम गवाहियाँ उम्मत के नेक और सच्चे लोगों के साथ ख़ास हैं, और उनके विश्वसनीय होने के लिये ज़बान की एहतियात शर्त है. जो लोग ज़बान की एहतियात नहीं करते और शरीअत के ख़िलाफ़ बेजा बातें उनकी ज़बान से निकलती हैं और नाहक़ लानत करते हैं, सही हदीस की किताबों में है कि क़यामत के दिन न वो सिफ़ारिशी होंगे और न गवाह.
     इस उम्मत की एक गवाही यह भी है कि आख़िरत में जब तमाम अगली पिछली उम्मतें जमा होंगी और काफ़िरों से फ़रमाया जाएगा, क्या तुम्हारे पास मेरी तरफ़ से डराने और निर्देश पहुंचाने वाले नहीं आए, तो वो इन्कार करेंगे और कहेंगे कोई नहीं आया. नबियों से पूछा जाएगा, वो अर्ज़ करेंगे कि ये झूटे हैं, हमने इन्हें तेरे निर्देश बताए. इस पर उनसे दलील तलब की जाएगी. वो अर्ज़ करेंगे कि हमारी गवाह उम्मते मुहम्मदिया है. ये उम्मत पैग़म्बरों की गवाही देगी कि उन हज़रात ने तबलीग़ फ़रमाई. इस पर पिछली उम्मतों के काफ़िर कहेंगे, इन्हें क्या मालूम, ये हमसे बाद हुए थे. पूछा जाएगा तुम कैसे जानते हो. ये अर्ज़ करेंगे, या रब तूने हमारी तरफ़ अपने रसूल मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को भेजा, क़ुरआन पाक उतारा, उनके ज़रिये हम क़तई यक़ीनी तौर पर जानते हैं कि नबियों ने तबलीग़ का फ़र्ज़ भरपूर तौर से अदा किया. फिर नबियों के सरदार सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से आपकी उम्मत के बारे में पूछा जाएगा. हुजू़र उनकी पुष्टि फ़रमाएंगे. इससे मालूम हुआ कि जिन चीज़ों की यक़ीनी जानकारी सुनने से हासिल हो उसपर गवाही दी जा सकती है.
     (5) उम्मत को तो रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के बताए से उम्मतों के हाल और नबियों की तबलीग़ की क़तई यक़ीनी जानकारी है और रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम अल्लाह के करम से नबुव्वत के नूर के ज़रिये हर आदमी के हाल और उसके ईमान की हक़ीक़त और अच्छे बुरे कर्मों और महब्बत व दुश्मनी की जानकारी रखते हैं. इसीलिये हुज़ूर की गवाही दुनिया में शरीअत के हुक्म से उम्मत के हक़ में मक़बूल है. यही वजह है कि हुज़ूर ने अपने ज़माने के हाज़िरीन के बारे में जो कुछ फ़रमाया, जैसे कि सहाबा और नबी के घर वालों की बुज़ुर्गी और बड़ाई, या बाद वालों के लिये, जैसे हज़रत उवैस और इमाम मेहदी वग़ैरह के बारे में, उस पर अक़ीदा रखना वाजिब है. हर नबी को उसकी उम्मत के कर्मों की जानकारी दी जाती है. ताकि क़यामत के दिन गवाही दे सकें चूंकि हमारे नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की गवाही आम होगी इसलिये हुज़ूर तमाम उम्मतों के हाल की जानकारी रखते हैं.
     यहाँ शहीद का मतलब जानकार भी हो सकता है, क्योंकि शहादत का शब्द जानकारी और सूचना के लिये भी आया है. अल्लाह तआला ने फ़रमाया “वल्लाहो अला कुल्ले शैइन शहीद” यानी और अल्लाह हर चीज़ की जानकारी रखता है. (सूरए मुजादलह, आयत 6)
     (6) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पहले काबे की तरफ़ नमाज़ पढ़ते थे. हिजरत के बाद बैतुल मक़दिस की तरफ़ नमाज़ पढ़ने का हुक्म हुआ. सत्तरह महीने के क़रीब उस तरफ़ नमाज़ पढ़ी. फिर काबा शरीफ़ की तरफ़ मुंह करने का हुक्म हुआ. क़िबला बदले जाने की एक वजह यह बताई गई कि इससे ईमान वाले और काफ़िर में फ़र्क़ और पहचान साफ़ हो जाएगी. चुनान्वे ऐसा ही हुआ.
     (7) बैतुल मक़दिस की तरफ़ नमाज़ पढ़ने के ज़माने में जिन सहाबा ने वफ़ात पाई उनके रिश्तेदारों ने क़िबला बदले जाने के बाद उनकी नमाज़ो के बारे में पूछा था, उसपर ये आयत उतरी और इत्मीनान दिलाया गया कि उनकी नमाज़ें बेकार नहीं गई, उनपर सबाब मिलेगा. नमाज़ को ईमान बताया गया क्योंकि इसकी अदा और जमाअत से पढ़ना ईमान की दलील है.
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*​DEEN-E-NABI ﷺ*
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