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Monday 26 December 2016

*तर्जमए कन्ज़ुल ईमान व तफ़सीरे खज़ाइनुल इरफ़ान* #111
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*_सूरतुल बक़रह, आयत ①④⑥_*
जिन्हें हमने किताब अता फ़रमाई (14)
वो उस नबी को ऐसा पहचानते हैं जैसे आदमी अपने बेटों को पहचानता है (15)
और बेशक उनमें एक गिरोह (समूह) जान बूझकर हक़ (सच्चाई) छुपाते हैं(16)

*तफ़सीर*
     (14) यानी यहूदियों और ईसाईयों के उलमा.
     (15) मतलब यह है कि पिछली किताबों में आख़िरी ज़माने के नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के गुण ऐसे साफ़ शब्दों में बयान किये गए हैं जिनसे किताब वालों के उलमा को हुज़ूर के आख़िरी नबी होने में कुछ शक शुबह बाक़ी नहीं रह सकता और वो हुज़ूर के इस उच्चतम पद को पूरे यक़ीन के साथ जानते हैं. यहूदी आलिमों में से अब्दुल्लाह बिन सलाम इस्लाम लाए तो हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो ने उनसे पूछा कि आयत “यअरिफ़ूनहू” (वो इस नबी को ऐसा पहचानते हैं……..) में जो पहचान बयान की गई है उसकी शान क्या है. उन्होंने फ़रमाया, ऐ उमर, मैंने हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को देखा तो बग़ैर किसी शुबह के पहचान लिया और मेरा हुज़ूर को पहचानना अपने बेटों के पहचानने से कहीं ज़्यादा भरपूर और सम्पूर्ण है. हज़रत उमर ने पूछा, वह कैसे ? उन्होंने कहा मैं गवाही देता हूँ कि हुज़ूर अल्लाह की तरफ़ से उसके भेजे हुए रसूल हैं, उनके गुण अल्लाह तआला ने हमारी किताब तौरात में बयान फ़रमाए हैं. बेटे की तरफ़ से ऐसा यक़ीन किस तरह हो. औरतों का हाल ऐसा ठीक ठीक किस तरह मालूम हो सकता है. हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो ने उनका सर चूम लिया. इससे मालूम हुआ कि ऐसी दीनी महब्बत में जिसमें वासना शामिल न हो, माथा चूमना जायज़ है.
     (16) यानी तौरात और इन्जील में जो हुज़ूर की नअत और गुणगान है, किताब वालों के उलमा का एक गुट उसको हसद, ईर्ष्या और दुश्मनी से जानबूझ कर छुपाता है. सच्चाई का छुपाना गुनाह और बुराई है.

*_सूरतुल बक़रह, आयत ①④⑦_*
( ऐ सुनने वाले) ये सच्चाई है तेरे रब की तरफ़ से (या सच्चाई वही है जो तेरे रब की तरफ़ से हो) तो ख़बरदार तू शक ना करना.
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