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Sunday 25 December 2016

*तर्जमए कन्ज़ुल ईमान व तफ़सीरे खज़ाइनुल इरफ़ान* #110
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*_सूरतुल बक़रह, आयत ①④⑤_*
और अगर तुम उन किताबियों के पास हर निशानी लेकर आओ वो तुम्हारे क़िबले की पैरवी (अनुकरण) न करेंगे (11)
और न तुम उनके क़िबले की पैरवी करो (12)
और आपस में एक दूसरे के क़िबले के ताबे(फ़रमाँबरदार) नहीं (13)
और ( ऐ सुनने वाले जो कोई भी हो ) अगर तू उनकी ख़्वाहिशों पर चला बाद इसके कि तुझे इल्म मिल चुका तो उस वक़्त तू ज़रूर सितमगार (अन्यायी) होगा.

*तफ़सीर*
     (11) क्योंकि निशानी उसको लाभदायक हो सकती है जो किसी शुबह की वजह से इन्कारी हो. ये तो हसद और दुश्मनी के कारण इन्कार करते हैं, इन्हें इससे क्या नफ़ा होगा.
     (12) मानी ये हैं कि यह क़िबला स्थगित न होगा. तो अब किताब वालों को यह लालच न रखना चाहिये कि आप उनमें से किसी के क़िबले की तरफ़ रूख़ करेंगे.
     (13) हर एक का क़िबला अलग है. यहूदी तो बैतुल मक़दिस के गुम्बद को अपना क़िबला क़रार देते हैं और ईसाई बैतुल मक़दिस के उस पूर्वी मकान को, जहाँ हज़रत मसीह की रूह डाली गई. (फ़त्ह).
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