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Thursday 29 December 2016

*नमाज़ के 7 फराइज़* #03
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*3 किराअत*
     किराअत इस का नाम है की तमाम हरुफ़ मखारिज से अदा किये जाए की हर हर्फ़ सहीह तौर पर मुमताज़ हो जाए।
     आहिस्ता पढ़ने में भी ये ज़रूरी है की खुद सुन ले।
     अगर हरुफ़ तो सहीह अदा किये मगर इतने आहिस्ता की खुद न सुना और कोई रुकावट मसलन शोरो गुल या उचा सुनने का मरज़ भी नही तो नमाज़ न होइ।
     अगर्चे खुद सुनना ज़रूरी है मगर ये भी एहतियात रहे की आहिस्ता किराअत वाली नमाज़ों में किराअत की आवाज़ दुसरो तक न पहुचे, इसी तरह तस्बिहात वग़ैरा में भी ख्याल रखिये।
     नमाज़ के इलावा भी जहा कुछ कहना या पढ़ना मुक़र्रर किया है इस से भी ये मुराद है की कम अज़ कम इतनी आवाज़ हो की खुद सुन सके मसलन तलाक़ देने, जानवर ज़बह करने के लिये अल्लाह का नाम लेने में इतनी आवाज़ ज़रूरी है की खुद सुन सके।
     दुरुद शरीफ वग़ैरा अवराद पढ़ते हुए भी कम अज़ कम इतनी आवाज़ होनी चाहिये की खुद सुन सके जभी पढ़ना कहलाएगा।
     मुतलक़न एक आयत पढ़ना फ़र्ज़ की दो रकअतो में और वित्र्, सुन्नत और नवाफ़िल की हर रकअत में इमाम व मुनफरीद (तन्हा नमाज़ पढ़ने वाला) पर फ़र्ज़ है।
     इमाम के पीछे मुक्तदि को नमाज़ में किराअत जाइज़ नहीं न सूरतुल फातिहा न आयत। चाहे आहिस्ता किराअत वाली नमाज़ हो या बुलंद आवाज़ में किराअत वाली नमाज़ हो। इमाम की किराअत मुक्तदि के लिये काफी है।
     अगर अकेले फ़र्ज़ नमाज़ पढ रहा है और किसी रकअत में किराअत न की या फ़क़त एक में की नमाज़ फासिद् हो गई।
     फर्ज़ो में ठहर ठहर कर किराअत करे और तरावीह में मुतवस्सीत अंदाज़ पर और रात के नवाफ़िल में जल्द पढ़ने की इजाज़त है, मगर ऐसा पढ़े की समझ में आ सके यानी कम से कम मद का जो दरजा क़ारियो ने रखा है उस को अदा करे वरना हराम है, इस लिये के तरतील से क़ुरआन पढ़ने का हुक्म है।
     आज कल के अक्सर हुफ़्फ़ाज़ इस तरह पढ़ते है की मद का अदा होना तो बड़ी बात है कुछ लफ़्ज़ों के अलावा बाकी लफ्ज़ का पता ही नहीं चलता न तसहिहे हरुफ़ होती बल्कि जल्दी में लफ्ज़ के लफ्ज़ खा जाते है और इस पर तफाखुर होता है की फुला इस क़दर पढ़ता है ! हाला की इस तरह क़ुरआने मजीद पढ़ना हराम है।

*_हरुफ़ की सहीह अदाएगी ज़रूरी है_*
     अक्सर लोग ط ت، س ص ث، ا ء ع، ه ح، ض ذ ظ ز में कोई फ़र्क़ नहीं करते। याद रखिये ! हरुफ़ बदल जाने से अगर माना फासिद् हो गए तो नमाज़ न होगी।
मसलन जिसने "सुब्हान रब्बियल अज़ीम" में अज़ीम में ( ظ के बजाए ز ) पढ़ दिया नमाज़ जाती रही लिहाज़ा जिस से अज़ीम सहीह अदा न हो वो "सुब्हान रब्बियल करीम" पढ़े।
*✍🏽क़ानूने शरीअत, 1/119*

*_खबरदार❗खबरदार❗खबरदार❗_*
     जिस से हरुफ़ सहीह अदा नहीं होते उस के लिये थोड़ी देर मश्क़ कर लेना काफी नहीं बल्कि लाज़िम है की इन्हें सिखने के लिये रात दिन पूरी कोशिश करे, और अगर सहीह पढ़ने वाले के पीछे नमाज़ पढ़ सकता है तो फ़र्ज़ है की उस के पीछे पढ़े या वो आयते पढ़े जिस के हरुफ़ सहीह अदा कर सकता हो। और ये दोनों सूरते न मुम्किन हों तो ज़मानए कोशिश में उस की अपनी नमाज़ हो जाएगी।
     आज कल काफी लोग इस मरज़ में मुब्तला है की न उन्हें कुरआन सहीह पढ़ना आता है न सिखने की कोशिश करते है। याद रखिये ! इस तरह नमाज़े बर्बाद होती है।
*✍🏽नमाज़ के अहकाम, 164-166*
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