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Saturday 13 August 2016

तर्जमए कन्ज़ुल ईमान व तफ़सीरे खज़ाइनुल इरफ़ान

 #05
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*_सूरए फातिहा_*
*तफसीर* #01
अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान रहमत वाला,

*हम्द यानि अल्लाह की बड़ाई बयान करन*
हर काम की शुरूआत में बिस्मिल्लाह की तरह अल्लाह की बड़ाई का बयान भी ज़रूरी है. कभी अल्लाह की तारीफ़ और उसकी बड़ाई का बयान अनिवार्य या वाजिब होता है जैसे जुमुए के ख़त्बे में, कभी मुस्तहब यानी अच्छा होता है जैसे निकाह के ख़ुत्बे में या दुआ में या किसी अहम काम में और हर खाने पीने के बाद. कभी सुन्नते मुअक्कदा (यानि नबी का वह तरीक़ा जिसे अपनाने की ताकीद आई हो)जैसे छींक आने के बाद.
*✍🏽तहतावी*

*रब्बिल आलमीन*
(यानि मालकि सारे जहां वालों का)में इस बात की तरफ इशारा है कि सारी कायनात या समस्त सृष्टि अल्लाह की बनाई हुई है और इसमें जो कुछ है वह सब अल्लाह ही की मोहताज है. और अल्लाह तआला हमेशा से है और हमेशा के लिये है, ज़िन्दगी और मौत के जो पैमाने हमने बना रखे हैं, अल्लाह उन सबसे पाक है, वह क़ुदरत वाला है. *रब्बिल आलमीन* के दो शब्दों में अल्लाह से तअल्लुक़ रखने वाली हमारी जानकारी की सारी मन्ज़िलें तय हो गई.
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खादिमे दिने नबी ﷺ, *मुहम्मद मोईन*
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*​DEEN-E-NABI ﷺ*
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