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जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ



*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ* #01
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*_सुन्नी की तारीफ क्या है ?_* #01
     *सवाल :* सुन्नी की तारीफ़ क्या है ?
     *जवाब :* हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमरرضي الله تعالي عنه से रिवायत है की हुज़ूरﷺ ने फ़रमाया : बनी इस्राइल में 71 फिरके (पार्टिया) हो गए थे, जब की मेरी उम्मत में 73 फिरके हो जायेंगे। उनमे एक फिरके को छोड़ कर बाक़ी सारे के सारे फिरके जहन्नमी होंगे।
     सहाबए किराम ने अर्ज़ किया : या रसूलुल्लाहﷺ ! वो एक फिरका कोनसा है जो जन्नती होगा ?
     आपﷺ ने फ़रमाया : वो लोग उसी मजहब पर डटे रहेंगे जिस पर में और मेरे सहाबा है।
*✍🏽तिर्मिज़ी, 89*
*✍🏽मिश्कात, 30*

     इस हदिष से मालुम हुआ की हुज़ूरﷺ की ये उम्मत 73 फिरको में बट जायेगी लेकिन उनमे सिर्फ एक फिरका जन्नती होगा जो हुज़ूरﷺ और उनके सहाबा के नक्शे कदम पर चलेगी और उन अक़ीदों पर क़ायम रहेगी जिन अक़ीदों को हुज़ूरﷺ ने उम्मत को दिया और उन अक़ीदों को सहाबा ने माना।
     हुज़ूरﷺ के तरीके पर चलने वाले को *"अहले सुन्नत"* और सहाबा की जमाअत थी इसलिए उनके तरीके पर चलने की वजह से नाम हुआ *"अहले सुन्नत व जमाअत"* यानी हुज़ूरﷺ और जमाअत (सहाबा) के तरीके पर चलने वाला। बाद में हल्का-फुल्का शोर्ट नाम *"सुन्नी"* हुआ।

बाक़ी अगली पोस्ट में.. ان شاء الله
*✍🏽जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ, 3*
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*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ*​ #02

*_​​सुन्नी की तारीफ क्या है ?​​_* #02
      *सवाल :* कुछ लोग अहले सुन्नत व जमाअत के खिलाफ अक़ीदा रखते हुए भी अपने आप को सुन्नी कहते है ?

     *जवाब :* अल्लाह ने अपने बन्दों को दुआ की तालीम देते हुए यु फ़रमाया की, ऐ मेरे बन्दों ! जब नमाज़ पढ़ने के लिये खड़े हो तो मुझसे यु दुआ करो : *ऐ अल्लाह हमें सीधा रास्ता चला, रास्ता उन लोगो का, जिन पर तेरा इनआम हुआ* (सूरए फातिहा)
     आइये क़ुरआन से पूछे की इनआम पाने वाले कौन लोग है ? जिनके तरीके पर चलने की पाचो वक़्त अल्लाह से दुआ की जाती है। क़ुरआन का इरशाद है :
     *वो लोग, जिन पर अल्लाह ने इनआम किया वो अम्बिया ऐ किराम और सिद्दीक़ीन और शोहदा ऐ किराम और सालिहीन (औलिया अल्लाह) है।*
_पारह 5, रूकू, 5_

     ये चार जमाअते है, जिन पर अल्लाह ने इनआम फ़रमाया, ये नबियो, सिद्दिक़ो, शहीदों, औलिया अल्लाह की जमाअत है। हर मुसलमान अपनी नमाज़ में ये दुआ करता है। *ऐ अल्लाह ! मुझे उन पाक लोगो के नक्शे क़दम पर चलने की तौफ़ीक़ अता फरमा।*
     वो लोग जो (बनावटी सुन्नी) तो नमाज़ में वलियों की गुलामी की दुआ मांगते है, मगर जेसे ही सलाम फेरा फौरन इन्कार कर देते है। कहते है की : हम वलियों की ज़रूरत नही, उनके मज़ारों पर क्यू जाए वो मिट्टी का ढेर है, गौष व ख्वाजा के पास क्या रख्खा है ? तुम्ही नमाज़ की पाबन्दी करो ! गौष व ख्वाजा बन जाओगे ! वगैरा वगैरा।

     अलहम्दु लिल्लाह ! हम सुन्नी सहीहुल अक़ीदा नमाज़ में जो अल्लाह से दुआ मांगते है, नमाज़ के बाद भी उस दुआ पर कायम रहते है। सुन्नी की इस दुआ की क़बूलिय्यत की ये दलील है की, उन के हाथो में औलिया अल्लाह का दामन है।
अहले सुन्नत व जमाअत के खिलाफ जितनी भी जमाअते है उनमे अल्लामा, लीडर, डॉक्टर, इंजिनियर, प्रोफेसर वगैरा तो दिखा सकते हो। मगर उन में गौषे पाम, ख्वाजा गरीब नवाज़ नही दिखा सकते। आप को जो भी वली मिलेगा वो सुन्नियो ही में मिलेगा।
     जो सच्चा मज़हब होता है उसी में वली अल्लाह होते है। देखो ! जबसे हज़रते मूसा व हज़रते इसा अलैहिस्सलाम का दिन मनसुख (रद्द) हो गया तो कोई वली पैदा नही हुआ। आज भी दुन्या में यहूदी व नसरानी तो मौजूद है मगर उन में कोई वली नही। जब तक उनका दिन मनसुख नही हुआ था वली पैदा होते रहे और मनसुख होने के बाद वली होना बंद हो गया।
     इसी तरह आज जो मज़हब व मसलक सच्चा है उसी में वली पाये जाते है। अलहम्दु लिल्लाह ! रसूले आज़मﷺ सुन्नियो के हिस्से में आये, सिद्दीके आज़म, शहीदे आज़म, गौषे आज़म, ख्वाजा ऐ आज़म, मुजद्दिदे आज़म, मुफ्तिए आज़म, मोहद्दीसे आज़म सब अहले सुन्नत के हिस्से में आये।
        *खुदा के फ़ज़्ल से है हम पे साया गौषे आज़म का*
          *हमे दोनों जहां में है सहारा गौषे आज़म का*
            *किसी को जमाने की दौलत मिली है*
            *किसी को जहा की हुकूमत मिली है*
            *में अपने मुकद्दर पर क़ुरबान जाऊ*
            *मुझे गौष का आस्ताना मिला है*

*✍🏽​जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ​​, 4*
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*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ*​ #03
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
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*_​​सुन्नी की तारीफ क्या है ?​​_* #03
     *सवाल :* ईमान व अक़ीदा किसे कहते है ?
     *जवाब :* किसी बात को हक़ व सच मान कर दिल में बिठा व जमा लेने और यक़ीन कर लेने को ईमान व अक़ीदा कहते है।

     *सवाल :* ईमान व अमल में पहला दर्जा किसका है ?
     *जवाब :* पहला मर्तबा ईमान व अक़ीदे का है। क्यू की ईमान (अक़ीदा) ओरा आमाल की मिसाल जिस्म और जान की तरह है, ईमान जान है, आमाल जिस्म। ईमान इमारत की बुन्याद है, आमाल छत है। ईमान जड़ है, आमाल फल है। इस लिये क़ुरआन में जहा अमल का हुक्म फ़रमाया वहा उससे पहले ईमान का मुताबला किया है। जो बेईमान व बद अक़ीदा हो उस पर इस्लामी अहकाम फ़र्ज़ ही नही, उस पर पहले इमां फ़र्ज़ है।

*_सुलह कुल्ली_*
     *सवाल :* कुछ लोग कहते है जितनी जमाअते मुसलमान कहलाने वाली है वो सब के सब हक़ पर है, किसी जमाअत को बुरा-भला नही कहना चाहिए। इनके बारे में थोड़ी रौशनी डालिए।
     *जवाब :* ऐसा अक़ीदा रखने वालो को सुलह कुल्ली कहते है। इनका ये अक़ीदा हुज़ूर के इस फरमान की : *"एक जमाअत के इलावा बाक़ी मुसलमान कहलाने वाली सारी जमाअते जहन्नमी है"* के खिलाफ है।
     हुज़ूर का फरमान है की 73 में सिर्फ एक जन्नती, मगर ऑयलः कुल्लियो का अक़ीदा है की "नहीं सब जन्नती" मआज़ल्लाह।

*✍🏽​जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ, 4*
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*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ*​ #04
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*जायज़ नाजायज़ की कसौटी क्या है ?* #01
     *सवाल :* मिलाद, क़याम, सलाम, नियाज़, फातिहा वगैरा सुन्नी रस्मे व रिवाज़ोके बारे में लगभग हर जगह से सवाल होता ही की क्या "रसूलुल्लाह, या सहाबा, या ताबेईन या अइम्मा ऐ मुजतहिदीन ने ये काम किया ?" अगर नही तो ये काम बिदअत गुमराही है, और हर गुमराही जहन्नम में ले जाने वाली है।

     *जवाब :* इसका पहला इल्ज़मी जवाब ये है की, क्या हुज़ूर  या सहाबा या ताबेईन या अइम्मा ऐ मुजतहिदीन ने इन कामकाज से रोका ? अगर रोका है तो सुबूत पेश करो ! और अगर मना नही किया और सच्ची बात यही है की मना नही किया, तो उनके (बद अक़ीदों) के मुताबिक़ ये मना करना भी बिदअत और जहन्नम में ले जाने वाला हुआ इसलिए की उनके सवाल से ही जाहिर हो गया की जो काम उन हज़रात ने न किया हो वो बिदअत है और मना करना भी यक़ीनन एक काम है, और उन हज़रात ने मना नही किया तो ये भी बिदअत हुआ।
*✍🏽जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ, 5*
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*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ*​ #05
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
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*जायज़ नाजायज़ की कसौटी क्या है ?*​ #02
*सवाल :* इन् सुन्नी रस्म व रिवाजो के बारे में शरीअत का क्या हुक्म है ?

     *जवाब :* हर एक चीज़ के बारे में शरीअत का कानून है की , जिस चीज़ को खुदा व रसूल अच्छा बताये वो अच्छा है। और जिसे बुरा फरमाये वो बुरा है। और जिससे खामोशी फर्मायी यानी शरीअत से न उस के बारे में भलाई निकली न बुराई वो असल में जायज़ रहती है यानी उसके करने या न करने पर न षवाब और न अजाब। ये कानून हमेशा याद रखना चाहिए क्योंकि अक्सर जगह काम आएगा।
     हा अगर किसी चीज़ को शरीअत मना करदे तो वो हराम, या मकरुहे तहरिमि, या मना है। यानी मना करने से हराम या गुनाह होना साबित होगा। ये कानून व क़ायदा क़ुरआन और हदिष और फुकहाए किराम से साबित है।
     अल्लाह फ़रमाता है : ऐ ईमान वालो ! ऐसी बाटे न पूछो की जो तुम पर जाहिर कर दी जावे तो तुम को बुरी लगे और अगर उस वक़्त पूछोगे जब की क़ुरआन उतर रहा है तो जाहिर कर दी जायेगी अल्लाह उनको (जिनका क़ुरआन में ज़िक्र नही) माफ़ कर चूका है। *(क़ुरआन शरीफ)*
     इससे मालुम हुआ की जिसका कुछ बयान न हुआ हल, न हलाल होने का और न हराम होने का तो वो माफ़ है। इसी लिए क़ुरआन ने हराम औरतो का ज़िक्र फरमा कर फ़रमाया : इनके अलावा बाक़ी औरते तुम्हारे लिए हलाल है, यानी उससे निकाह जायज़ है।
     और फ़रमाया : तुममे तफ़सील वार बयान कर दिया गया वो चीज़े जो की तुम पर हराम है। *(क़ुरआन शरीफ)*
     यानी हलाल चीज़ों की तफ़सील की ज़रूरत नही, तमाम चीज़े ही हलाल है। हा कुछ हराम है जिनकी तफ़सील बता दी उन के सिवा सब हलाल।
     हदिष में है : हलाल वो है जिसको अल्लाह ने अपनी किताब (क़ुरआन) में हलाल किया और हराम वो है जसिको अल्लाह ने अपनी किताब में हराम किया और जिससे ख़ामोशी फ़रमाई वो माफ़ है। *(मिश्कात शरीफ)*
     इस हदिष से मालुम हुआ की चीज़े 3 तरह की होती है :-
     ★ जिनका हलाल होना खुले तौर पर क़ुरआन में ज़िक्र किया गया।
     ★ जिनके हराम होने का ज़िक्र खुले तौर पर है।
     ★ जिन से ख़ामोशी फ़रमाई ये माफ़ है।

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*✍🏽जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ, 5*
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*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ*​ #06
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*जायज़ नाजायज़ की कसौटी क्या है ?*​ #03
     शामी शरीफ जिल्द 1 में है : जुम्हूर (आम) हनफ़ी और शाफ़ई के नजदीक यही मसअला है की अस्ल मुबाह (माफ़) होना है।
     तफ़सीरे ख़ाज़िन, रुहुलबयान, खजाइनुल इरफ़ान वगैरा में भी इसका यही खुलासा है की, हर चीस में अस्ल यही है की वो मुबाह है। मना करने से नाजायज़ होगा।
     बुखारी शरीफ मअ फुतूहलबारी, 19/655 पर है : तमाम चीज़े जायज़ व मुबाह है जब तक की किसी चीज़ के लिये शरीअत से मना होना साबित न हो।
     मालुम हुआ जिस चीज़ को अल्लाह और उसके रसूल ने मना नही फ़रमाया वो जायज़ व मुबाह है। उसे मना करना, या बिदअत कहना बहुत बड़ी ज्यादती है।
     शरीअत में जो बाते मना है, नाजायज़ है, हराम है उनको खोल काट बता दिया गया है। और जिन बातो का मना होना ज़िक्र नही वो इस बात की दलील है की वो बाते जायज़ है।
     हर जायज़ के लिये शरीअत का एलान होना ज़रूरी नही। बिदअत व नाजायज़ और हराम कहने वाले पर लाज़िम है की वो शरीअत से मना होना दिखाये।
     इस तरह का सवाल करना की मिलाद शरीफ कहा जायज़ ? नियाज़ फातिहा कहा जायज़ ? 11वी शरीफ, तीजा, दसवा, बिसवा, चालीसवा कहा जायज़ ? उर्स कहा जायज़ ? वगैरा। उन नादानों को ये सवाल तो उस वक़्त करना चाहिए जब की हम कहे की "जायज़ की लिस्ट तैयार है" हम तो ये कहते है की "नाजायज़ की लिस्ट तैयार हो गई है।
     तो तूने शरीअत की लिस्ट में नाजायज़ होना देखा ? अगर नही देखा तो जान ले और मान ले की, नाजायज़ की लिस्ट में न होना ही जायज़ होने की दलील है।
     अगर तुम जेसे बेवकुफो की खातिर इस्लाम हर जायज़ को बयान करता, तो दुन्या में क़यामत तक जितने काम जायज़ होने वाले है सब का ज़िक्र फ़रमाता। क़यामत तक जितनी चीज़े पैदा हो-हो कर जायज़ होने वाली है उनका नाम दर्ज़ होता तो जानते है क्या होता ?
     ये क़ुरआन पाक 30 पारह में नही होता बल्कि 30 हज़ार पारह में भी पूरा नही होता और क़यामत तक दुन्या में क़ुरआने पाक का एक भी हाफ़िज़ न मिलता।
*✍🏽जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ, 6*
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*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ*​ #07
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*_जायज़ को नाजायज़ कहने वालो पर शरीअत की तलवार_*
     *सवाल :* जो लोग जायज़ को ना जायज़ कहते रहते है उनके बारे में शरीअत का क्या हुक्म है ?

     *जवाब :* ऐसे कामो के बारे में जिनके करने न नकरने का हुक्म शरीअत ने नही दिया। उन पर हराम व नाजायज़ का फतवा नही लगाया जा सकता। क़ुरआन में इस से मना किया गया है, इरशाद होता है :
     और न कहो ! उसे जो तुम्हारी ज़बाने झूठ बयान करती है की ये हलाल है और वो हराम है ताकि अल्लाह पर झूठ थोपो ! बेशक !! जो अल्लाह पर झूठ थोपते है वो कभी नजात नही पा सकते।
*(सुरह नहल)*
     और हुज़ूरﷺ ने फ़रमाया : जो कोई जान बूझकर मुझ पर झूठ बात की निस्बत करे वो अपना ढिकना जहन्नम में बनाये।
*✍🏽बुखारी, तिर्मिज़ी, इब्ने माजा*

     मुनकिरिने मामुलाते अहले सुन्नत से हमारा मुतालबा है की तुम्हारे पास अगर कोई क़ुरआनी आयत, या हदिष मौजूद हो तो अपने दावा में पेश करो ! अगर नही तो जहन्नम का हौलनाक अज़ाब का मज़ा चखने के लिये तैयार रहो !
     अल्लाह उन लोगो को दिने इस्लाम की सही समझ अता फरमाये ! आमीन ! या रब्बल आलमीन !

     हमारे मामुलाते हसना की अस्ल शरीअत में है अगर किसी फिरका परस्त, हठधर्मी को नज़र न आये तो उस की नज़र का कसूर और दिल का फतुर है।
          *आँखे अगर है बंद तो फिर दिन भी रात है*
          *इस में कसूर क्या है? भला आफताब का?*

*✍🏽जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ, 7*
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*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ*​ #08
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*_इस्लाम में हर नई चीज़ गुमराही नही_*
     *सवाल :* क्या इस्लाम में नया तरीका निकालना बुरा नही ?

     *जवाब :* इस्लाम में हर नया तरीक़ा बिदअत (गुमराही) नही। जैसा की हुज़ूर ने फ़रमाया : जो कोई इस्लाम में अच्छा तरीक़ा निकालेगा उसे उसका षवाब मिलेगा और जितने लोग उसके बाद उस पर अमल करेंगे सबके बराबर उसे षवाब मिलेगा, जबकि उनके षवाब में कोई कमी नही की जाएगी। और जो इस्लाम में कोई बुरा तरीक़ा निकालेगा उस पर उसका गुनाह होगा और जो लोग उसके बाद उस पर अमल करेंगे अबके बराबर उस पर गुनाह होगा जबकि उनके गुनाहो में कोई कमी नही की जाएगी।
*✍🏽मुस्लिम, मिश्कात*

     इस हदिष से मालुम हुआ की बिदअत की 2 किस्मे है -
◆ हसना, यानी अच्छा तरीक़ा
◆ सैइयह, यानी बुरा तरीक़ा
     अच्छा तरीक़ा निकालने वाले को उस का षवाब मिलता है और अमल करने वालो को भी, और क़यामत तक अमल करने वालो के बराबर षवाब मिलता है।
     जाहिर सी बात है बुरा तरीक़ा निकालने वाले को इसका उल्टा है, यानी उस बुरे तरीके का गुनाह होता है और क़यामत तक जितने लोग उस पर अमल करेंगे उन सबका गुनाह उस पर होगा।
     उलमा ऐ किराम ने इसे खोल कर बयान फरमा दिया है की बिदअते सैइयह वो है जो क़ुरआन, हदिष, असर और इज्मा के खिलाफ हो, यानी क़ुरआन में, अहादीस में, या सहाबा से, या इज्मा से एक हुक्म साबित है और कोई उसके खिलाफ कुछ करे, या कहे वो बुरी बिदअत, गुमराही, हराम है।
     जैसा की सही हदिष से साबित है की, हुज़ूर जुम्मा के दिन जब मिम्बर पर तशरीफ़ रखते तो हुज़ूर के सामने मस्जिद के दरवाज़े पर अज़ान होती थी। क्र हज़रत अबू बक्र और हज़रत उमर के ज़माने में भी ऐसा ही होता था।
*✍🏽अबू दाऊद, 1/179*
     अब कस अज़ान को मस्जिद के अंदर, खतीब के सर पर देना बिदअते सैइयह (गुमराही का नया तरीक़ा) है। इसलिए की ये हदिष के खिलाफ है।
     जिस नई चीज़ के निकालने से शरीअत का कोई हुक्म, हुज़ूर की कोई सुन्नत उठ जाए, इस्लाम का नुक़सान हो वो तरीक़ा गुमराही का है और उसे बिदअते सैइयह कहा गया है।

     *सवाल :* आम तोर बे पढ़े लिखे लोगो को ये कह कर बहकाया जाता है की, अगर ये चीज़े अच्छी होती इनमे षवाब होता तो हुज़ूर और सहाबा ने क्यू नही किया ?
     *जवाब :* बात दरअसल ये है की हुज़ूर अपनी उम्मत पर बहुत ही रहीम व महेरबान थे। हुज़ूर की ये ख्वाहिश हमेशा रहती थी और रही की मेरी उम्मत ज़्यादा से ज़्यादा ऐसे काम करे जो षवाब व बुलंदी ऐ दर्जात के सबब हो, चुकी किसी अच्छे तरीके के निकालने का षवाब अलग और उसपर क़यामत तक जितने लोग अमल करे उस का षवाब अलग इस लिए आमाले हसना (अच्छे व नेक काम) के निकालने का दरवाज़ा खुला रख्खा की मेरी उम्मत उनको निकल कर बेशुमार षवाबो के हक़दार हो जाये और अगर ईजाद (निकालने) का दरवाज़ा बंद फरमा देते तो उम्मत अनगिनत षवाबो से महरूम रहती।
*✍🏽जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ, 7*​
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*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ*​ #09
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*इसाले षवाब-मुर्दो को षवाब पहचना* #01
     *सवाल :* कुछ लोगो का अक़ीदा है की मुसलमान अपनी इबादत का षवाब, अपने मुर्दो की रूहो को न पहुचा सकता है, न पहुचता है और न ही उस से मुर्दो को कोई फायदा पहुचता है। सही क्या है ?

     *जवाब :* इबादत की 3 किस्मे है :
     ★ बदनी इबादत, इसका तअल्लुक़ बदन से है, जेसे क़ुरआन की तिलावत, तस्बीह व तहलील, दुआ व इस्तिग़फ़ार और नमाज़ व रोज़ा वगैरा।
     ★ माली इबादत, इसका तअल्लुक़ माल से है, जेसे ज़कात, सद्क़ात व खैरात वगैरा।
     ★ मुरक्कब (मिलावट), इसका तअल्लुक़ दोनों से है की इस में माल भी खर्च होता है और मक्का पहुच कर जिस्म के साथ हज के अरकान भी अदा करने पड़ते है।
     मुसलमान इन इबादतों में से कोई भी इबादत इख्लास के साथ करता है तो अल्लाह अपने फ़ज़्ल व करम से उसको षवाब अता फ़रमाता है।
     इसाले षवाब का इनकार पुराने ज़माने में एक गुमराह फिरका मोतजला ने किया था, अगर्चे मोतजला तो नही रहे लेकिन बदकिस्मती से मोतजला के ख्याल से मेल खाने वाले ख्यालात के कुछ लोग फिर इस ज़माने में पैदा हो गए है, जिन्होंने इसाले षवाब का इनकार करना शुरू कर दिया है। जब की वे क़ुरआन व हदिष पर ईमान व अमल रखने के दावेदार भी है। ताज्जुब है की क़ुरआन व हदिष पर ईमान का दावा करने वाले इसाले षवाब के मुन्किर कैसे हो गए ? क्यू की क़ुरआन व हदिष पर अमल का दावा और इनकार ये दोनो चीज़े तो ऐसी है जो कभी जमा नही हो सकती। ऐसे लोगो को हमारी इन दलीलो पर गहरी सोच व फ़िक्र करनी चाहिए। और अगर सामने से काला पर्दा हट जाये तो फौरन तौबा कर लेनी चाहिए।
     अल्लाह फ़रमाता है : वो जो बाद आये वो यु दुआ करते है ऐ हमारे परवरदिगार ! हमको बख्श दे ! और हमारे उन भाइयो को भी बख्श दे ! जो हम से पहले ईमान के साथ गुज़र चुके है।
*पारह 28*
     गौर कीजिये ! इस आयत में अल्लाह मुसलमानो के इस मुबारक अमल की तारीफ़ कर रहा है की उनके बाद आने वाले मुसलमान जहा अपने लिए मग्फिरत की दुआ करते है, वहा वो अपने मरे हुए मुसलमान भाइयो और बहनो के लिये भी बख्शीश की दुआ करते है जो उन से पहले गुज़र चुके है।
     अगर ये मान लिया जाये की जिन्दो की दुआ से मुर्दो को कोई फायदा नही पहुचता तो क्या मआज़ल्लाह क़ुरआन एक बेकार काम की तारीफ़ फरमा रहा है ?

बाक़ी अगली पोस्ट में.. ان شاء الله
*✍🏽जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ, 8*
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*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ*​ #10
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*इसाले षवाब-मुर्दो को षवाब पहचना* #02
     अल्लाह हज़रते इब्राहिम अलैहिस्सलाम की दुआ का ज़िक्र भी तारीफ़ के तैर पर बयान फ़रमाता है : "ऐ हमारे परवरदिगार ! मुझको और मेरे माँ-बाप को और मोमिनो को बख्श दे ! जिस दिन हिसाब कायम हो।"
*पारह 13*
     गुज़रे हुए लोगो के लिए दुआ ऐ मग्फिरत करना कसैले षवाब ही है अगर इसाले षवाब से गुज़रे हुवो को कोई फायदा नही पहुचता तो क्या हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम जेसे जलिलुल क़द्र पैगम्बर क्या एक बेकार काम कर रहे है ? और क्या अल्लाह भी उस बेकार व फुजूल काम की यु ही तारीफ़ फरमा रहा है ?

     अल्लाह फ़रमाता है : "वो फ़रिश्ते जो अर्श को उठाने वाले और उसके चारो और है वो हमारी तस्बीह व तहमिद के साथ साथ मोमिनो के लिए बख्शीश की भी दुआ करते है।"
*पारह, 24*
     इस आयत से मालुम हुआ की, अल्लाह के फ़रिश्ते अल्लाह की तस्बीह व तहमिद के साथ साथ मोमिनो के लिए मग्फिरत की दुआ मांगते है। देखिये ! बख्शीश मांगने वाले फ़रिश्ते है और उसका फायदा मुसलमानो को पहुचेगा अगर उनकी दुआ का कोई फायदा नही तो क्या वो फ़रिश्ते एक फ़ालतू काम कर रहे है ? और उस फालतू काम का ज़िक्र भी अल्लाह क़ुरआन में फ़रमा रहा है ?

     हुज़ूर की बारगाह में एक सहाबी आये और अर्ज़ किया : "मेरी माँ का अचानक इन्तिकाल हो गया है और वसीयत न कर सकी, मेरा ख्याल है की अगर में उनकी तरफ से सदक़ा दू, तो क्या उस सदके का षवाब उनको मिलेगा ? आप ने फ़रमाया हा ! मिलेगा।
*✍🏽बुखारी*
     इस हदिष से सूरज की तरह रोशन हो जाता है की सदके का षवाब मुर्दो को पहुचता है।

     एक और हदिष में है की, हुज़ूर इरशाद फरमाते है : अगर मय्यत मुसलमान हो तो तुम उसके लिये गुलाम आज़ाद करो ! या उसकी तरफ से सदक़ा दो ! या हज करो ! तो उसका षवाब पहुचेगा।
*✍🏽अबू दाऊद*
*✍🏽जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ, 9*​
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*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ*​ #11
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
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*इसाले षवाब-मुर्दो को षवाब पहचना* #03
*_खाना सामने रखकर इसाले षवाब करना_*
     *सवाल :* कुछ लोग कहते है की खाना सामने रखकर इसाले षवाब करना और फातिहा पढ़ने का कोई सबूत नही, इसके बारे में क्या फरमाते है ?

     *जवाब :* हदिष में है की, हज़रत सअदرضي الله تعالي عنه हुज़ूरﷺ की खिदमत में हाज़िर हुए और अर्ज़ किया : या रसूलुल्लाहﷺ ! मेरी माँ का इन्तिकाल हो गया है, उनके लिए कौन सा सदक़ा अफ्ज़ल है ? आप ने फ़रमाया : पानी,
     तो हज़रत सअदرضي الله تعالي عنه कुवा खुदवा दिया, और ये फ़रमाया ये कुवा, मेरी माँ के लिये है।
*✍🏽अबू दाऊद*
     हज़रते सअदرضي الله تعالي عنه अगर चाहते तो कुवा खुदवा देने के बाद अपने घर या हुज़ूरﷺ की बारगाह में हाज़िर हो कर ये केह सकते थे की : जो कुवा में ने खुदवाया है उसका षवाब मेरी माँ को पहुचे। मगर उन्हों ने ऐसा नही किया, बल्कि कुए के सामने कुए की और इशारा करके कहा की, ये मेरी वालिदा के लिये है।

     एक हदिष में है की, हुज़ूरﷺ ने दो मेढ़ों की क़ुरबानी की, और उसी वक़्त जब की गोश्त सामने मौजूद था, इसाले षवाब फ़रमाया, हदिष के अलफ़ाज़ ये है : हुज़ूरﷺ ने अपने हाथ मुबारक से जिबह किया और फ़रमाया : ऐ अल्लाह ! ये मेरी तरफ से है और मेरी उम्मत के उन लोगो की तरफ से है जिन्होंने क़ुरबानी नही की।
*✍🏽मिश्कात शरीफ*
     इस हदिष से मालुम हुआ की हुज़ूरﷺ ने जिस वक़्त इसाले षवाब के ये अलफ़ाज़ फरमाये उस वक़्त गोश्त सामने मौजूद था।
     इन दोनों हदोषो से साबित हो गया की फातिहा दिया जाता है सामने होना और सामने रखना जायज़ है।
*✍🏽जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ، 9*​
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*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ*​ #11
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*इसाले षवाब-मुर्दो को षवाब पहचना* #04
*_दुआ में हाथ उठाना सुन्नत है_*
     अबू दाऊद की हदिष में है की, हुज़ूरﷺ ने अपने हाथ दुआ के लिये उठाये और अल्लाह की बारगाह में अर्ज़ किया : ऐ अल्लाह ! अपनी रहमत और सलवात सअद की आल पर नाज़िल फरमा।
     रावी कहता है की , हुज़ूरﷺ ने खाने पर हाथ उठा कर दुआ की इसके बाद खाना खाया। हुज़ूरﷺ सअद बिन उबादाرضي الله تعالي عنه के लिए बरकत की दुआ फरमान चाहते थे, इसलिये हुज़ूरﷺ ने बरकत की दुआ फ़रमाई और हम अपने मरहुमो के लिये मग्फिरत चाहते है इस लिए हम मग्फिरत की दुआ करते है, या किसी बुज़ुर्ग के लिए दुआ करना चाहते है इस लिए उनके बुलंद दर्जात की दुआ करते है।

     *सवाल :* कुछ लोग कहते है की फातिहा वगैरा हिन्दुओ जिस काम है। क्यू की वो लोग भी मुर्दो की 13वी करते है, और हदिष में है की जो किसी क़ौम से मुशाबहत (एकरूपता) करे वो उन में से है। इसलिए ये फातिहा मन है, इस बारे में क्या फरमाते है ?
     *जवाब :* गेर मुस्लिम से हर मुशाबहत मना नही बल्कि बुरी बातो में मुशाबहत मन है। फिर ये भी ज़रूरी है की वो काम ऐसा हो जो गेर मुस्लिमो की धार्मिक पहचान बन चुकी है, जिसको देख कर लोग उसे गेर मुस्लिम समझे, जेसे धोती, चोटी वगैरा। वरना हम भी आबे जम जम मक्का से लाते है, हिन्दू लोग भी गंगा जल लाते है, हम मुह से कहते है और पाँव से चलते है, वो लोग भो ऐसे ही खाते और चलते है।
     हुज़ूरﷺ ने आशूरा के दिन (10 मुहर्रम) के रोज़े का हुक्म दिया था, जबकि उसमे यहूदियो की मुशाबहत थी क्यू की वो लोग भी आशूरा का रोज़ा रखते थे। फिर आपﷺ ने फ़रमाया "हम दो रोज़े रख्खेंगे" कुछ फर्क कर दिया, मगर उसको बंद न किया।
     इसी तरह हमारे यहाँ क़ुरआन, दुरुद व सलाम पढ़ा जाता है। हिन्दुओ के यहाँ ये नही होता। फिर मुशाबहत कहा रही ?
*✍🏽जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ, 11*
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*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ*​ #11
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*इसाले षवाब-मुर्दो को षवाब पहचना* #05
*_औलिया अल्लाह की नज़्र, नियाज़, मन्नत_*
     *सवाल :* कुछ लोग कहते है को, औलिया अल्लाह के नाम जो नज़्र मानी जाती है वो शिर्क है। क्या ये सही है ?
     *जवाब :* सरासर गलत है। औलिया अल्लाह के नाम जो नज़्र मानी जाती है वो शराइ नज़्र नही, बल्कि उर्फी है। नज़्र की 2 किस्मे है :-
     ★ शरई नज़्र
     ★ उर्फी नज़्र
     शराइ नज़्र उसे कहते है किसी गेर ज़रूरी इबादत को अपने ऊपर ज़रूरी कर लेना। और इबादत उसे कहते है किसी को मअबूद, खुदा मान कर उसे खुश करने के लिए कोई काम करना।
     जब की उर्फी नज़्र आम लोगो की बोली में हदया, तोहफा, नज़राना को कहा जाता है। जेसे कोई कहता है की, "या गौषे पाक ! आप दुआ फरमाये! अगर मेरा मरज़ अच्छा हो गया तो में आपके नाम की देगा पकाउंगा।"
     इसका मतलब ये नही होता की "आप मेरे खुदा है, मअबूद है इस बीमारी से अच्छा होने पर में आप की इबादत करूँगा।"
     बल्कि ये मतलब होता है की "में बिरयानी, हलीम, खीर या सदक़ा करूँगा अल्लाह के लिये और उस पर जो षवाब मिलेगा वो सरकार गौषे पाक को बख्शुंग।"
     जेसे कोई किसी डॉ. से कहे अगर बीमार अच्छा हो गया तो 500 रु. आप को तोहफा दूंगा, आपकी नज़्र करूँगा। इसमें क्या गुनाह है ?

     नज़्र शरई अल्लाह के सिवा किसी की मानना जायज़ नही जबकि नज़्र उर्फी बुज़ुर्गाने दिन, औलिया अल्लाह के लिये उनकी ज़ाहिरी हयाती या बातिनी हयाती में पेश की जाती है। जो जायज़ है।
      हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस दहलवी अलैरहमा के भाई शाह रफीउद्दीन साहब "रिसाला नुजूर" में लिखते है : नज़्र का शब्द जो की यहाँ इस्तेमाल होता है, शरई अर्थ पर नही इसलिए की अवाम की बोली में जो कुछ बुज़ुर्गो के यहाँ ले जाते है उसे "नज़्र व नियाज़" कहते है।
     हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस दहलवी अलैरहमा "फतवा अजीजिया जी.1 सफा 78 में फरमाये है : जो खाना कि हज़राते हसनैन को नियाज़ करे उस पर फातिहा, कुल, और दुरुद पढ़ना षवाब और बरकत वाला है। और उसका खाना बहुत अच्छा है।
     हज़रत मुहद्दिस दहलवी अलैरहमा के फरमान के मुताबिक़ नज़्र व नियाज़ करना भी साबित हुआ और साथ ही फातिहा पढ़ना और उसका खाना तबर्रुक भी।
     इसी फतवा अजीजिया में है : अगर मिलाद और चावलों की खीर किसी बुज़ुर्ग के लिये इसाले षवाब की नियत से पका कर खिलाये तो कोई हर्ज नही है, जायज़ है। फिर फ़रमाया : अगर फातिहा किसी बुज़ुर्ग के नाम किया गया तो मालदारों को भी खाना जायज़ है।
*✍🏽जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ, 12*
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*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ*​ #12
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*_11वी शरीफ मुक़र्रर होने का अहम राज़_* #02
     *सवाल :* ये बताइये 11वी शरीफ मुक़र्रर होने में क्या राज़ है ?
     *जवाब :* हुज़ूर सरकार गौषे आज़मرضي الله تعالي عنه के अकीदतमंद हज़रात रबिउस्सानी की 11 तारीख को आपرضي الله تعالي عنه का खत्म दिलाते है। नात, मनकबत और बाअज़ की महफ़िल होती है और कुछ खाना पका कर हाजरीन में तकसीम कर दिया जाता है। ये फातिहा खानी जो 11वी शरीफ के नाम से मशहूर है अस्ल में हुज़ूरﷺ का खत्म शरीफ है।
     हज़रत अल्लामा याफिइ अलैरहमा ने अपनी किताब "कुर्रतुन्नाजीरा" में फरमाते है की, रबिउस्सानी की 11 तारीख को एक बार हुज़ूरﷺ की नियाज़ सरकार गौषे आज़मرضي الله تعالي عنه ने दिया। वो नियाज़ हुज़ूरﷺ की बारगाह में इस क़दर मक़बूल हुई की सरकार गौषे आज़मرضي الله تعالي عنه ने हर माह की 11 तारीख को ये फातिहा मुक़र्रर कर दी। फिर आहिस्ता आहिस्ता इस अमल की निस्बत आप की तरफ हो गई "11वी गौषे पाक की"।
     यानी वो 11वी जो हुज़ूर गौषे पाकرضي الله تعالي عنه किया करते थे, अब आपका उर्स भी 11 तारीख को ही होता है। जबकि आप की तारीख विसाल 17 रबिउस्सानी है।
     किताब "याजदा मजलिस" में लिखा है : हुज़िर गौषे पाकرضي الله تعالي عنه हुज़ूरﷺ की 12वी तारीख के मिलाद के बहुत पाबंद थे। एक बार ख्वाब में हुज़ूर सरकारे दो आलमﷺ ने फ़रमाया : अब्दुल क़ादिर ! तुमने 12वी से हम को याद किया हम तुम को 11वी देते है। यानी लोग 11वी से तुम को याद करेंगे।
     इसलिए रबीउल अव्वल में आम तौर पर मिलाद मुस्तफा की महफ़िल होती है, तो रबिउस्सानी में हुज़ूर गौषे पाकرضي الله تعالي عنه की 11वी। ये सरकारﷺ का तोहफा था इसलिए सारी दुनिया में फेल गया। लोग तो शिर्क व बिदअत कह कर घटाने की कोशिश करते रहे मगर तरक्की इस क़दर हुई की...
          *तू घटाने से किसी के न घटा है, न घटे..*
          *जब बढ़ाये तुझे अल्लाह तेरा.....*

*✍🏽जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ, 15*
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*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ*​ #13
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*11वी शरीफ के फुयुज व बरकात* #01
     जनाब क़ाज़ी वजीहुद्दीन क़ादरी अलैरहमा नकल फरमाते है की, बुरहान पुर में हमारे घर के क़रीब एक हिन्दू खत्री रहता था और हज़रत महबूबे सुबहानीرضي الله تعالي عنه का जान व दिल से अकीदतमंद था, जब नाम सुनता क़ुरबान होता था और आप के उर्स शरीफ करता था उम्दा उम्दा खाने पकवा कर फकीरो, दरवेशों को खिलाता था।
     जब उस का इन्तिकाल हो गया तो उसकी जाट के लोग अपने दस्तूर के मुताबिक़ उसको मरघट में ले गए, घी और आग में जलाया मगर हजार कोशिश के बावुजूद उसका एक बाल भी नही जलता था। मायूस हो कर नदी में बहाने का इरादा किया की नदी के जानवर और मछलिया खाएंगे। इतने में हज़रत गौषे पाकرضي الله تعالي عنه के एक खलीफा को आलमे बातिन में हुक्म हुआ की, फुला हिन्दू हमारे फला फ़रज़न्द के पास मुसलमान हुआ और कलिमा पढ़कर हमारे सिलसिले में दाखिल हुआ और उसका नाम सादुल्लाह है, वो मर गया है तुम उसे मरघट से लाकर गुस्ल दो और नमाजे जनाज़ा पढ़कर दफ़्न कर दो ! हमारे परवरदिगार ने हम से वादा फ़रमाया है की हमारा मुरीद बाईमान मरेगा और दोनों जगह (दुन्या व आख़िरत) में उस पर आग असर न करेगी।
*✍🏽अलहकाइक फिलहदाईक, 161*
*✍🏽जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ, 15*

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*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ*​ #14
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
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*_11वी शरीफ अल्लाह वालो की नज़र में_* #01
     सरकार गौषे पाकرضي الله تعالي عنه की 11वी शरीफ सिर्फ जायज़ ही नही बल्कि हाजत पूरी होने के लिये तजरबा से साबित है। पहले के बुज़ुर्गाने दिन, औलिया अल्लाह इसके जायज़ होने और खैर व् बरकत के कायल और मायल थे। चन्द हवाले नकल किये जा रहे है।

     हज़रत अल्लामा मुहक्कीक व मुहद्दिस अब्दुल हक दहलवी साहिब क़िबला अलैरहमा फरमाते है : हमने अपने सरदार व आरिफ, कामिल हज़रत शैख़ अब्दुलवहाब क़ादरी को हज़रते गौषे पाकرضي الله تعالي عنه के उर्स के दिन 11वी शरीफ की मुहाफिज़त और पाबन्दी फरमाते हुए देखा। इसके इलावा हमारे शहरो में हमारे दूसरे मशाइख के नज़दीक भी 11वी शरीफ मसहूर है।
*✍🏽मसाबत बिस्सुन्नह, 242*

     यही शैख़ मुहक्कीक व मुहद्दिस दहलवी फरमाते है : हज़रत शैख़ अमान पानी फ़्ति अलैरहमा जो की औलिया अल्लाह की जमाअत में उचा मक़ाम रखते थे, रबीउल उखरा की 10 वी तारीख (11वी शरीफ की रात)  को हुज़ूर गौषे आज़मرضي الله تعالي عنه का उर्स करते थे।
*✍🏽अखबारुल अख्यार शरीफ, 242*

     हज़रत मुल्ला मुहम्मद जीवन अलैरहमा फरमाते है : दूसरे मशाइख (बुज़ुर्गाने दिन) का उर्स तो साल भर के बाद होता है लेकिन सरकार गौषे आज़मرضي الله تعالي عنه की ये निराली शान है की बुज़ुर्गाने दिन ने आपका उर्स (11वी शरीफ) हर महीने मुक़र्रर फरमा दिया है।
*✍🏽दजीजुस्सिरात, 82*
*✍🏽जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ, 17*
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*11वी शरीफ अल्लाह वालो की नज़र में​​* #02
     हज़रत शाह वलियुल्लाह मुहद्दिस दहलवी अलैरहमा (जिन्हें देवबंदी हज़रात अपने बड़ो में गिनते है) वो अपनी किताबबी में नकल फरमाते है : हज़रत मिर्ज़ा मजहर  जान जाना अलैरहमा ने ख्वाब में एक बहुत चौड़ा चबूतरा देखा जिस पर बहुत से औलिया अल्लाह हल्का बांधकर मुराकबा में थे।
     फिर हज़रत अली के इस्तिक़बाल के लिए चल पड़े। जब हज़रत मौला अलीكَرَّمَ اللّٰهُ تَعَالٰى وَجْهَهُ الْكَرِيْم तशरीफ़ लाये तो उनके साथ हज़रत उवैस करनीرضي الله تعالي عنه भी थे। चुनांचे ये सब हज़रात एक नूरानी हुजरा में तशरीफ़ ले गए।
     पूछने पर उन में से एक बुज़ुर्ग ने बताया की, आज हुज़ूर गौषे आज़मرضي الله تعالي عنه का उर्स (11वी शरीफ) है। उसमे शिर्कत फरमा रहे है।
     एक नामवर इल्मी व रूहानी शख्सियत के हवाले से ऐसी अज़ीमुश्शान रूहानी सनद और ऐसे अज़ीम बुज़ुर्गो की सरपरस्ती बयान फरमा कर हज़रत शाह वलियुल्लाह मुहद्दिस दहलवी ने उर्स 11वी शरीफ के जायज़ होने पर तहक़ीक़ मोहर लगाया है। वाकेया से साफ जाहिर है।
*✍🏽कलीमाते तैयिबात फ़ारसी, 78*

     फिर भी हज़रत शाह मुहद्दिस दहलवी अलैरहमा से अपनी अकीदत व मुहब्बत का ढोल पीटने वाले, उनके नाम पर पेट पालने वाले अपने फतवो से बाज़ नही आते।
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*_11वी शरीफ अल्लाह वालो की नज़र मे_* #03
     हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस दहलवी अलैरहमा ने इन लफ़्ज़ों में 11 वी शरीफ का तारीखी सुबूत व मक़बूलिय्यत बयान फ़रमाया है की : हज़रत गौषे पाकرضي الله تعالي عنه के मज़ार पर 11वी शरीफ 11वी तारीख को बादशाह वक़्त व शहर के बड़े बड़े लोग जमा होते, असर की नमाज़ से मगरिब तक क़ुरआन पाक की तिलावत करते, नात शरीफ व मनकबत पढ़ते, ज़िक्र करते फिर मिठाई वगैरा जो नियाज़ तैयार होती वो तकसीम की जाती और नमाज़े ईशा पढ़कर लोग रुख्सत हो जाते।
*✍🏽मल्फ़ज़ाते आजिज़ी फ़ारसी, 62*

     देवबंदी हज़रात के पेशवा हज़रत हाजी हम्दादुल्लाह साहिब क़िबला अलैरहमा ने फ़रमाया : गौषे पाकرضي الله تعالي عنه की 11वी, दसवा, बिसवा, चेहलुम, शाश्माहि, बरसी (उर्स) वगैरा और इसाले षवाब के दूसरे तरीके इसी कानून की बुन्याद पर है की ये सब चीज़े बुनयादी तौर पर मना नही और इनमे कोई हर्ज नही।
*✍🏽फैसला हफ्ते मसअला*

11 वी शरीफ इसाले षवाब ही है और अगर कोई जिद्दी, हठधर्मी न माने तो उसकी हठधर्मी से 11वी शरीफ हराम न हो जाएगी। हा ! उसका आमाल नामा ज़रूर खराब व काला हो जाएगा।

*✍🏽जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ, 18*
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*_या गौषे आज़म ! खुदा के लिये कुछ अता हो_* #01
     *सवाल :* वजीफा - ऐ "या हज़रत सुलतान शैख़ सैय्यिद शाह अब्दुल क़ादिर जिलानी शैअन लिल्लाह" पढ़ना हम लोग जायज़ कहते है, जबकि कुछ लोग इसे कुफ़्र व शिर्क कहते है। सही क्या है ?

     *जवाब :* इसका तर्जुमा ये है : "ऐ हज़रत सुलतान शैख़ शाह अब्दुल क़ादिर जिलानी ! खुदा के लिए कुछ अता हो"
     अरबी का ये वाक्य बिलकुल ऐसा ही है जेसे आम बोल चाल में हम कहा करते है की, खुदा के लिये मेरी मदद कीजिये। यानी अपनी इमदाद के लिए में खुदा का वास्ता देता हु, यहाँ इसका मतलब ये नही की, खुदा मोहताज है इसलिए उसके लिए कुछ अता कीजिए, मआज़ल्लाह
     ऐसा अक़ीदा रखना यक़ीनन कुफ़्र है। मगर ऐसा अक़ीदा जाहिल से जाहिल भी नही रखता जनाब ये मुहावरा आम-ख़ास सभी में रिवाज पड़ा हुआ है। लेकिन आज तक किसी ने इस लर ऐतराज़ नही किया।

*✍🏽जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ, 22*
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*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ*​ #18
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*
*​​या गौषे आज़म ! खुदा के लिये कुछ अता हो​​* #02
     *सवाल :* यहाँ मुंकिरिन का सवाल ये है की खुदा के लिए मेरी मदद कीजिये ! ऐसा बोलने वाला जिससे मुखातिब है वो सुन भी रहा है और मदद करने की क़ुदरत भी रखता है। ये जिसे पुकार रहा है वो न सुन रहा है और न उनके अंदर मदद करने की ताकत है।
     *जवाब :* मुंकिरिन की ये बाते जहालत या जान कर अनजान बन्ने की वजह से है। वरना सच ये है की मुखातिब जिसे पुकार रहा है और मदद करने की ताकत भी रखता है। वो औलिया अल्लाह को मआज़ल्लाह मुर्दा समजते है, इस लिए उनको गलत फेमी हो गई है की मुर्दा कैसे सुन सकता है ? और मदद करने की ताकत कैसे पैदा हो सकती है ?
     उन जाहीलो को कोई कहे की मुर्दा भी सुनता है, बहुत सी हदिशो से ये साबित है, चुनांचे हज़रत अबू हुरैराرضي الله تعالي عنه ने बयान किया की, हुज़ूरﷺ ने इरशाद फ़रमाया : जब आदमी किसी ऐसे आदमी की क़ब्र पर जाता हैं जिसे वो दुन्या में जानता था वो उसे सलाम करता है तो मुर्दा सलाम का जवाब भी देता है और उसे पहचानता भी है। और जिसे जानता नही था वो भी क़ब्र से सलाम का जवाब देता है।
*✍🏽बेहक़ी शरीफ*
*✍🏽इब्ने असाकर*
     हज़रत बराअرضي الله تعالي عنه से रिवायत है की हुज़ूरﷺ ने इरशाद फ़रमाया : जब मय्यत को दफ़्न करके लोग वापस होते है तो मुर्दा उनके जूतो की आवाज़ सुनता है।
*✍🏽इमाम अहमद*
*✍🏽अबू दाऊद*
*✍🏽मुस्लिम शरीफ*
     इन हदिशो से ये बात अच्छी तरह साबित हो गई की आम मुसलमान अपनी क़ब्रो में ज़िन्दा है, सुनते है, पहचानते है, और सलाम का जवाब भी देते है।
     इसी के साथ ये भी सुन लीजिये की मोमिन की रूह *आलमे बाला* (जन्नत में उचे हिस्से) में रहती है और सलाम करने वाला जब उसकी क़ब्र पर सलाम करता है वो वही से उसका जवाब देती है। जैसा की नसाई शरीफ की शरह जहराबि में है की, रूह की एक शान ये भी है की आलमे बाला में रहते हुए भी बदन से उसका तअल्लुक़ क़ाइम रहता है और वही से वो सलाम की आवाज़ सुनती है और जवाब देती है।
     जब आम मुसलमान मुर्दो की रूहो की सुनने की ताक़त का ये आलम है की वो आलमे बाला से जो लाखो मिल दूर है सलाम की आवाज़ सुन लेती है, तो औलिया अल्लाह की मुक़द्दस रूहो के सुनने की ताक़त का अंदाज़ा कौन लगा सकता है ?

औलिया अल्लाह की तफसिलि मालूमात अगली पोस्ट में.. ان شاء الله
*✍🏽जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ, 22*
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*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ*​ #19
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*या गौषे आज़म ! खुदा के लिये कुछ अता हो* #03
     औलिया ए किराम की पाक रूहो का तअल्लुक़ जब ज़मीनी जिस्मो से टूटता है तो वो आलमे बाला से जा कर मिल जाती है और उस वक़्त किसी तरह का कोई पर्दा उन पर आड़ नही रहता बिलकुल इसी तरह वो हर चीज़ को देखती और हर आवाज़ सुनती हओ जेसे कोई दुन्या की ज़िन्दगी में अपने माथे की आँखों से आसमान, चाँद, सूरज व पहाड़ देखा करता है।
     ये शान तो आम औलिया ए किराम की है फिर जो सुल्ताने औलिया गौषे आज़मرضي الله تعالي عنه की शान का कौन अंदाज़ा लगा सकता है ?
     हज़रत शैख़ अब्दुलहक़ मुहद्दिस दहलवी अलैरहमा अपनी किताब "अशिअतुल लमआत शुरू बाब ज़ियारते क़ुबूर" में तहरीर फरमाते है : हज़रत इमाम गजाली अलैरहमा ने फ़रमाया, जिस से ज़िन्दगी में मदद मांगी जाती है उससे इन्तिकाल के बाद भी मदद मांगी जाए। एक जमाअत कहती है की जिन्दो की मदद से मुर्दो की मदद ताकतवर है। औलिया अल्लाह की हुक़ूमत जहानों में है।
     हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस अलैरहमा अपनी किताब "तफ़सीर फतहुल अज़ीज़" सफा 20 पर फरमाते है की : समझना चाहिए ! की किसी गैर से मदद मांगना इस तौर पर की उसे अल्लाह की मदद न समझे, ये हराम है। और अगर ध्यान अल्लाह की हिकमत के कारखाने का सबब जानकर उस से ज़ाहिरी मदद मांगी तो इरफ़ान से दूर नही है और शरीअत में भी जायज़ है और इस किस्म की इमदाद अम्बिया और औलिया ने भी मांगी है। लेकिन हक़ीक़त में ये गैरुल्लाह से मांगना नहीं है बल्कि अल्लाह ही की मदद है।
     और यही हज़रत शाह अलैरहमा फरमाते है : अल्लाह के काम जेसे लड़का देना, रोज़ी बढ़ाना, बीमार को अच्छा करना और इस जेसे हाजतो को मुशरिकीन खबीस रूहो और बुतो की तरफ निस्बत करते है और काफ़िर हो जाते है। जब की मुसलमान उन कामो को अल्लाह का हुक्म को मख्लूक़ की खासियत से जानते है, जेसे उसके बन्दों की दुआए, की ये बन्दे रब तआला की बारगाह से मांग कर लोगो की हाजत पूरी करते है और उन मोमिनो के ईमान में फर्क नही पड़ता।
*✍🏽तफ़सीरे अज़ीज़, सुरह बक़रह, सफा 460*
*✍🏽जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ, 23*​
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*जायज़-नाजायज़ की कसौटी और 11वी शरीफ* #20
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*​या गौषे आज़म ! खुदा के लिये कुछ अता हो* #04
*_विलायत का ओहदा गौषे पाक की बारगाह से बटता है_*
     जब अल्लाह अपने बन्दों में से किसी को वली बनाना चाहता हैतो हुक्म फ़रमाता है : इसे मुहम्मदﷺ की बारगाह में पेश करो !
     जब उसे हुज़ूरﷺ की बारगाह में पेश किया जाता है तो हुज़ूरﷺ इरशाद फरमाते है की : इसे मेरे बेटे अब्दुल क़ादिरرضي الله تعالي عنه के पास ले जाओ ! ताकि वो उसकी लिकायत देखे और ये भी की ये उस मर्तबे के क़बिल है भी या नही।
     हुज़ूरﷺ के इरशाद के मुताबिक उसे सरकार गौषे आज़मرضي الله تعالي عنه की बारगाह में पेश कर दिया जाता है। आप उसको वलायत के ओहदा के लायक देखते है तो उसका नाम दफ्तरे औलिया अल्लाह में लिख कर मोहर लगा देते है।
     फिर उसे हुज़ूरﷺ की बारगाह में पश किया जाता है। फिर गौषे पाकرضي الله تعالي عنه की तहरीर के मुताबिक़ महबूबे परवरदिगारﷺ का हुक्म लिखा जाता है, उसको वलायत के मर्तबे और इनआम से आगाह किया जाता है जो हुज़ूर गौषे पाकرضي الله تعالي عنه के मुक़द्दस हाथो से इनायत की जाती है और वो शख्स उस खिलअत को पहन लेता है और आलम ग़ैब व शहादत में मक़बूल व महबूब हो जाता है।
     इस ओहदे पर हुज़ूर गौषे पाकرضي الله تعالي عنه क़यामत तक फ़ाइज़ रहेंगे। और इस मक़ाम में कोई वली आपके बराबर नही है। हर जमाने और जगह में क़ुतुब, गौष और औलिया अल्लाह आपके बरकत के खज़ाने से फैज़ पाते रहेंगे।
     "तहरिहुल खातिर" की इस इबारत से पता चला की हुज़ूर सरकार गौषे पाकرضي الله تعالي عنه खुदा के दिए से रसूले पाकﷺ के सदके व तुफैल से ज़िन्दा भी है और अता भी फरमाते है और क़यामत तक आप का फैज़ ज़ारी रहेगा।

बाक़ी अगली पोस्ट में.. ان شاء الله
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