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Saturday 11 August 2018

*सूरतुल बक़रह, रुकुअ-4, आयत, ③⑦*


بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْـمٰـنِ الرَّحِـيْـمِ

اَلصَّــلٰـوةُ وَالسَّــلَامُ  عَــلَـيْـكَ يَا رَسُــوْلَ اللّٰه ﷺ

फिर सीख लिये आदम ने अपने रब से कुछ कलिमे (शब्द) तो अल्लाह ने उसकी तौबा क़ुबूल की(15) बेशक वही है बहुत तौबा क़ुबूल करने वाला मेहरबान.


*तफ़सीर*

(15) आदम अलैहिस्सलाम ने ज़मीन पर आने के बाद तीन सौ बरस तक हया (लज्जा) से आसमान की तरफ़ सर न उठाया, अगरचे हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम बहुत रोने वाले थे, आपके आंसू तमाम ज़मीन वालों के आँसूओं से ज़्यादा हैं, मगर हज़रत आदम अलैहिस्सलाम इतना रोए कि आप के आँसू हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम और तमाम ज़मीन वालों के आंसुओं के जोड़ से बढ़ गए (ख़ाज़िन). तिब्रानी, हाकिम, अबूनईम और बैहक़ी ने हज़रत अली मुर्तज़ा (अल्लाह उनसे राज़ी रहे) से मरफ़ूअन रिवायत की है कि जब हज़रत आदम पर इताब हुआ तो आप तौबह की फ़िक़्र में हैरान थे. इस परेशानी के आलम में याद आया कि पैदाइश के वक़्त मैं ने सर उठाकर देखा था कि अर्श पर लिखा है “ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर रसूलुल्लाह” मैं समझा था कि अल्लाह की बारगाह में वह रूत्बा किसी को हासिल नहीं जो हज़रत मुहम्मद (अल्लाह के दुरूद हों उन पर और सलाम) को हासिल है कि अल्लाह तआला ने उनका नाम अपने पाक नाम के साथ अर्श पर लिखवाया. इसलिये आपने अपनी दुआ में “रब्बना ज़लमना अन्फुसना व इल्लम तग़फ़िर लना व तरहमना लनकूनन्ना मिनल ख़ासिरीन.” यानी ऐ रब हमारे हमने अपना आप बुरा किया तो अगर तू हमें न बख्शे और हम पर रहम न करे तो हम ज़रूर नुक़सान वालों में हुए. (सूरए अअराफ़, आयत 23) के साथ यह अर्ज़ किया “अस अलुका बिहक्क़े मुहम्मदिन अन तग़फ़िर ली” यानी ऐ अल्लाह मैं मुहम्मद के नाम पर तुझसे माफ़ी चाहता हूँ. इब्ने मुन्ज़र की रिवायत में ये कलिमे हैं “अल्लाहुम्मा इन्नी असअलुका बिजाहे मुहम्मदिन अब्दुका व करामतुहू अलैका व अन तग़फ़िर ली ख़तीअती” यानी यारब मैं तुझ से तेरे ख़ास बन्दे मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की इज़्ज़त और मर्तबे के तुफ़ैल में, और उस बुज़ुर्गी के सदक़े में, जो उन्हें तेरे दरबार में हासिल है, मग़फ़िरत चाहता हूँ”. यह दुआ करनी थी कि हक़ तआला ने उनकी मग़फ़िरत फ़रमाई. इस रिवायत से साबित है कि अल्लाह के प्यारों के वसीले से दुआ उनके नाम पर, उनके वसीले से कहकर मांगना जायज़ है और हज़रत आदम अलैहिस्सलाम की सुन्नत है. अल्लाह तआला पर किसी का हक़ (अधिकार) अनिवार्य नहीं होता लेकिन वह अपने प्यारों को अपने फ़ज़्ल और करम से हक़ देता है. इसी हक़ के वसीले से दुआ की जाती है. सही हदीसों से यह हक़ साबित है जैसे आया “मन आमना बिल्लाहे व रसूलिही व अक़ामस सलाता व सौमा रमदाना काना हक्क़न अलल्लाहे  अैयं यदख़ुलल जन्नता”. हज़रत आदम अलैहिस्सलाम की तौबह दसवीं मुहर्रम को क़ुबुल हुई. जन्नत से निकाले जाने के वक़्त और नेअमतों के साथ अरबी ज़बान भी आप से सल्ब कर ली गई थी उसकी जगह ज़बाने मुबारक पर सुरियानी जारी कर दी गई थी, तौबह क़ुबुल होने के बाद फिर अरबी ज़बान अता हुई.  (फ़तहुल अज़ीज़) तौबह की अस्ल अल्लाह की तरफ़ पलटना है. इसके तीन भाग हैं- एक ऐतिराफ़ यानी अपना गुनाह तस्लीम करना, दूसरे निदामत यानी गुनाह की शर्म, तीसरे कभी गुनाह न करने का एहद. अगर गुनाह तलाफ़ी (प्रायश्चित) के क़ाबिल हो तो उसकी तलाफ़ी भी लाज़िम है. जैसे नमाज़ छोड़ने वाले की तौबह के लिये पिछली नमाज़ों का अदा करना अनिवार्य है. तौबह के बाद हज़रत जिब्रील ने ज़मीन के तमाम जानवरों में हज़रत अलैहिस्सलाम की ख़िलाफ़त का ऐलान किया और सब पर उनकी फ़रमाँबरदारी अनिवार्य होने का हुक्म सुनाया. सबने हुकम मानने का इज़हार किया. ( फ़त्हुल अज़ीज़)

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मिट जाऐ गुनाहो का तसव्वुर ही दुन्या से, 

गर होजाए यक़ीन के.....

*अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह देख रहा है...*

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