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Friday 20 January 2017

*तर्जमए कन्ज़ुल ईमान व तफ़सीरे खज़ाइनुल इरफ़ान* #131
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*_सूरतुल बक़रह, आयत ①⑦⑧_*
     ऐ ईमान वालों तुमपर फ़र्ज़ है (4)
कि जो नाहक़ मारे जाएं उनके ख़ून का बदला लो (5)
आज़ाद के बदले आज़ाद, और ग़ुलाम के बदले ग़ुलाम और औरत के बदले औरत (6)
तो जिसके लिये उसके भाई की तरफ़ से कुछ माफ़ी हुई (7)
तो भलाई से तक़ाज़ा हो और अच्छी तरह अदा, यह तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हारा बोझ हल्का करना है और तुम पर रहमत, तो इसके बाद जो ज़्यादती करे उसके लिये दर्दनाक अज़ाब है. (8)

*तफ़सीर*
     (4) यह आयत औस और ख़ज़रज के बारे में नाज़िल हुई. उनमें से एक क़बीला दुसरे से जनसंख्या में, दौलत और बुज़ुर्गी में ज़्यादा था. उसने क़सम खाई थी कि वह अपने ग़ुलाम के बदले दूसरे क़बीले के आज़ाद को, और औरत के बदले मर्द को, और एक के बदले दो को क़त्ल करेगा. जाहिलियत के ज़माने में लोग इसी क़िस्म की बीमारी में फंसे थे. इस्लाम के काल में यह मामला सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में पेश हुआ तो यह आयत उतरी और इन्साफ़ और बराबरी का हुक्म दिया और इसपर वो लोग राज़ी हुए.
     कुरआने करीम में ख़ून का बदला लेने यानी क़िसास का मसअला कई आयतों में बयान हुआ है. इस आयत में क़सास और माफ़ी दोनों के मसअले हैं और अल्लाह तआला के इस एहसान का बयान है कि उसने अपने बन्दों को बदला लेने और माफ़ कर देने की पूरी आज़ादी दी, चाहें बदला लें, चाहें माफ़ कर दें. आयत के शुरू में क़िसास के वाजिब होने का बयान है.
     (5)  इससे जानबूझ कर क़त्ल करने वाले हर क़ातिल पर किसास का वुजूब अर्थात अनिवार्यता साबित होती है. चाहे उसने आज़ाद को क़त्ल किया हो या ग़ुलाम को, मुसलमान को या काफ़िर को, मर्द को या औरत को. क्योंकि “क़तला” जो क़तील का बहुवचन है, वह सबको शामिल है. हाँ जिसको शरई दलील ख़ास करे वह मख़सूस हो जाएगा. (अहकामुल क़ुरआन)
     (6) इस आयत में बताया गया है कि जो क़त्ल करेगा वही क़त्ल किया जाएगा चाहे आज़ाद हो या ग़ुलाम, मर्द हो या औरत. और जाहलों का यह तरीक़ा ज़ल्म है जो उनमें रायज या प्रचलित था कि आज़ादों में लड़ाई होती तो वह एक के बदले दो को क़त्ल करते, ग़ुलामों में होती तो ग़ुलाम के बजाय आज़ाद को मारते. औरतों में होती तो औरत के बदले मर्द का क़त्ल करते थे और केवल क़ातिल के क़त्ल पर चुप न बैठते. इसको मना फ़रमाया गया.
     (7) मानी ये हैं कि जिस क़ातिल को मृतक के वली या वारिस कुछ माफ़ करें और उसके ज़िम्मे माल लाज़िम किया जाए, उस पर मृतक के वारिस तक़ाज़ा करने में नर्मी इख़्तियार करें और क़ातिल ख़ून का मुआविज़ा समझबूझ के माहौल में अदा करे. (तफ़सीरे अहमदी). मृतक के वारिस को इख़्तियार है कि चाहे क़ातिल को बिना कुछ लिये दिये माफ़ करदे या माल पर सुलह करे. अगर वह इस पर राज़ी न हो और ख़ून का बदला ख़ून ही चाहे, तो क़िसास ही फ़र्ज़ रहेगा (जुमल).
     अगर मृतक के तमाम वारिस माफ़ करदें तो क़ातिल पर कुछ लाज़िम नहीं रहता. अगर माल पर सुलह करें तो क़िसास साक़ित (शून्य) हो जाता है और माल वाजिब होता है (तफ़सीरे अहमदी).
     मृतक के वली को क़ातिल का भाई फ़रमाने में इस पर दलालत है कि क़त्ल अगरचे बड़ा गुनाह है मगर इससे ईमान का रिशता नहीं टूटता. इसमें ख़ारजियों का रद है जो बड़े गुनाह करने वाले को काफ़िर कहते है.
     (8) यानी जाहिलियत के तरीक़े के अनुसार, जिसने क़त्ल नहीं किया है उसे क़त्ल करे या दिय्यत क़ुबूल करे और माफ़ करने के बाद क़त्ल करे.
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मिट जाए गुनाहो का तसव्वुर ही दुन्या से,
गर होजाये यक़ीन के.....
*अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह देख रहा है...*
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