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Monday 23 January 2017

*तर्जमए कन्ज़ुल ईमान व तफ़सीरे खज़ाइनुल इरफ़ान* #133
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*_सूरतुल बक़रह, आयत ①⑧③_*
     ऐ  ईमान वालों (1)
तुम पर रोज़े फ़र्ज़ किये गए जैसे अगलों पर फ़र्ज़ हुए थे कि कहीं तुम्हें परहेज़गारी मिले (2)

*तफ़सीर*
     (1) इस आयत में रोज़े फ़र्ज़ होने का बयान है. रोज़ा शरीअत में इसका नाम है कि मुसलमान, चाहे मर्द हो या शारीरिक नापाकी से आज़ाद औरत, सुबह सादिक़ से सूरज डूबने तक इबादत की नियत से खाना पीना और सहवास से दूर रहे. (आलमगीरी).
     रमज़ान के रोज़े दस शव्वाल सन दो हिजरी को फ़र्ज़ किये गये (दुर्रे मुख़्तार व ख़ाज़िन).
     इस आयत से साबित होता है कि रोज़े पुरानी इबादत हैं. आदम अलैहिस्सलाम के ज़माने से सारी शरीअतों में फ़र्ज़ होते चले आए, अगरचे दिन और संस्कार अलग थे, मगर अस्ल रोज़े सब उम्मतों पर लाज़िम रहे.
     (2) और तुम गुनाहों से बचो, क्योंकि यह कसरे-नफ़्स का कारण और तक़वा करने वालों का तरीक़ा है.
*___________________________________*
मिट जाए गुनाहो का तसव्वुर ही दुन्या से,
गर होजाये यक़ीन के.....
*अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह देख रहा है...*
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*​DEEN-E-NABI ﷺ*
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