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Sunday 7 October 2018

*सूरतुल बक़रह, रुकुअ-13, आयत, ①ⓞ④*


بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْـمٰـنِ الرَّحِـيْـمِ

اَلصَّــلٰـوةُ وَالسَّــلَامُ  عَــلَـيْـكَ يَا رَسُــوْلَ اللّٰه ﷺ

ऐ ईमान वालों (1) “राइना” न कहो और यूं अर्ज़ करो कि हुज़ूर हम पर नज़र रख़ें और पहले ही से ग़ौर से सुनो (2) और काफ़िरों के लिये दर्दनाक अज़ाब है (3)


*तफ़सीर*

     (1) जब हुज़ूरे अक़दस सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम अपने सहाबा को कुछ बताते या सिखाते तो वो कभी कभी बीच में अर्ज़ किया करते “राइना या रसूलल्लाह” . इसके मानी ये थे कि या रसूलल्लाह हमारे हाल की रिआयत कीजिये. यानी अपनी बातों को समझने का मौक़ा दीजिये. यहूदियों की ज़बान में यह कलिमा तौहीन का अर्थ रखता था. उन्हों ने उस नियत से कहना शुरू किया. हज़रत सअद बिन मआज़ यहूदियों की बोली के जानकार थे. आपने एक दिन उनकी ज़बान से यह कलिमा सुनकर फ़रमाया, ऐ अल्लाह के दुशमनो, तुम पर अल्लाह की लअनत. अगर मैं ने अब किसी की ज़बान से यह कलिमा सुना तो उसकी गर्दन मार दूंगा. यहूदियाँ ने कहा, हमपर तो आप गर्म होते हैं, मुसलमान भी तो यही कहते हैं. इसपर आप रंजीदा होकर अपने आक़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हुए थे कि यह आयत उतरी, जिसमें “राइना” कहने को मना कर दिया गया और इस मतलब का दूसरा लफ़्ज़ “उन्ज़ुरना” कहने का हुक्म हुआ.   इससे मालूम हुआ कि नबियों का आदर सत्कार और उनके समक्ष अदब की बात बोलना फ़र्ज़ है, और जिस बात में ज़रा  सी भी हतक या तौहीन का संदेह हो उसे ज़बान पर लाना मना है.

     (2) और पूरी तरह कान लगाकर ध्यान से सुनो ताकि यह अर्ज़ करने की ज़रूरत ही न रहे कि हुज़ूर तवज्जुह फ़रमाएं, क्योंकि नबी के दरबार का यही अदब है. नबीयों के दरबार में आदमी को अदब के ऊंचे रूत्बों का लिहाज़ अनिवार्य है.

     (3) “लिल काफ़िरीन”(और काफ़िरों के लिये) में इशारा है कि नबियों की शान में बेअदबी कुफ़्र है.

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मिट जाऐ गुनाहो का तसव्वुर ही दुन्या से, 

गर होजाए यक़ीन के.....

*अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह देख रहा है...*

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