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Friday 10 February 2017

*तर्जमए कन्ज़ुल ईमान व तफ़सीरे खज़ाइनुल इरफ़ान* #145
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*_सूरतुल बक़रह, आयत ①⑨⑦_*
     हज के कई महीने हैं जाने हुए  (1) तो जो उनमें हज की नियत करे  (2) तो न औरतों के सामने सोहबत (संभोग) का तज़किरा (चर्चा) हो न कोई गुनाह न किसी से झगड़ा  (3) हज के वक़्त तक और तुम जो भलाई करो अल्लाह उसे जानता है (4) और तोशा परहेज़गारी है (5) और मुझसे डरते रहो  ऐ अक़्ल वालो (6)

*तफ़सीर*
     (1) शव्वाल, ज़िल्काद और दस तारीख़े ज़िल्हज की, हज के काम इन्हीं दिनों में दुरूस्त हैं, अगर किसी ने इन दिनों से पहले हज का इहराम बाँधा तो जायज़ है लेकिन कराहत के साथ.
     (2) यानी हज को अपने ऊपर लाज़िम व वाजिब करे इहराम बाँधकर, या तलबियह कहकर, या क़ुरबानी का जानवर चलाकर. उसपर ये चीज़ें लाज़िम हैं, जिनका आगे ज़िक्र फ़रमाया जाता है.
     (3) “रिफ़स” सहवास या औरतों के सामने हमबिस्तरी का ज़िक्र या गन्दी और अश्लील बातें करना है. निकाह इसमें दाख़िल नहीं. इहराम वाले मर्द और इहराम वाली औरत का निकाह जायज़ है अलबत्ता सहवास यानी हमबिस्तरी जायज़ नहीं.
     “फ़ुसूक़” से गुनाह और बुराईयाँ और “जिदाल” से झगड़ा मुराद है, चाहे वह अपने दोस्तों या ख़ादिमों के साथ हो या ग़ैरों के साथ.
     (4) बुराइयों या बुरे कामों से मना करने के बाद नेकियों और पुण्य की तरफ़ बुलाया कि बजाय गुनाह के तक़वा और बजाय झगड़े के अच्छे आचरण और सदव्यवहार अपनाओ.
     (5) कुछ यमन के लोग हज के लिये बेसामानी के साथ रवाना होते थे और अपने आपको मुतवक्किल कहते थे और मक्कए मुकर्रमा पहुंचकर सवाल शुरू करते और कभी दूसरे का माल छीनते या अमानत में ख़यानत करते, उनके बारे में यह आयत उतरी और हुक्म हुआ कि तोशा लेकर चलो, औरों पर बोझ न डालों, सवाल न करो, कि बेहतर तोशा परहेज़गारी है.
     एक क़ौल यह है कि तक़वा का तोशा साथ लो जिस तरह दुनियावी सफ़र के लिये तोशा ज़रूरी है, ऐसे ही आख़िरत के सफ़र के लिये परहेज़गारी का तोशा लाज़िम है.
     (6) यानी अक़्ल का तक़ाज़ा अल्लाह का डर है, जो अल्लाह से न डरे वह बेअक़्लों की तरह है.
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मिट जाए गुनाहो का तसव्वुर ही दुन्या से,
गर होजाये यक़ीन के.....
*अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह देख रहा है...*
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*​DEEN-E-NABI ﷺ*
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