*कन्ज़ुल ईमान*
بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ
اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ
*सूरए फातेहा* #02
*शानें नज़ूल यानी किन हालात में उतरी*
ये सूरत मक्कए मुकर्रमा या मदीनए मुनव्वरा या दोनों जगह उतरी. अम्र बिन शर्जील का कहना है कि नबीये करीम (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम – उन पर अल्लाह तआला के दुरुद और सलाम हों) ने हज़रत ख़दीजा(रदियल्लाहो तआला अन्हा – उनसे अल्लाह राज़ी) से फ़रमाया – मैं एक पुकार सुना करता हूँ जिसमें इक़रा यानी ‘पढ़ों’ कहा जाता है. वरक़ा बिन नोफि़ल को खबर दी गई, उन्होंने अर्ज़ किया – जब यह पुकार आए, आप इत्मीनान से सुनें. इसके बाद हज़रत जिब्रील ने खि़दमत में हाजि़र होकर अर्ज़ किया-फरमाइये: बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम. अल्हम्दु लिल्लाहे रब्बिल आलमीन- यानी अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान, रहमत वाला, सब खूबियाँ अल्लाह को जो मालिक सारे जहान वालों का. इससे मालूम होता है कि उतरने के हिसाब से ये पहली सूरत है मगर दूसरी रिवायत से मालूम होता है कि पहले सूरए इक़रा उतरी. इस सूरत में सिखाने के तौर पर बन्दों की ज़बान में कलाम किया गया है.
नमाज़ में इस सूरत का पढ़ना वाजिब यानी ज़रुरी है. इमाम और अकेले नमाज़ी के लिये तो हक़ीक़त में अपनी ज़बान से, और मुक्तदी के लिये इमाम की ज़बान से. सही हदीस में है इमाम का पढ़ना ही उसके पीछे नमाज़ पढ़ने वाले का पढ़ना है. कुरआन शरीफ़ में इमाम के पीछे पढ़ने वाले को ख़ामोश रहने और इमाम जो पढ़े उसे सुनेने का हुक्म दिया गया है.
अल्लाह तआला फ़रमाता है कि जब क़ुरआन पढ़ा जाए तो उसे सुनो और खा़मोश रहो. मुस्लिम शरीफ़ की हदीस है कि जब इमाम क़ुरआन पढ़े, तुम ख़ामोश रहो. और बहुत सी हदीसों में भी इसी तरह की बात कही गई है. जनाजे़ की नमाज़ में दुआ याद न हो तो दुआ की नियत से सूरए फ़ातिहा पढ़ने की इजाज़त है. क़ुरआन पढ़ने की नियत से यह सूरत नहीं पढ़ी जा सकती.
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मिट जाऐ गुनाहो का तसव्वुर ही दुन्या से,
गर होजाए यक़ीन के.....
*अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह देख रहा है...*
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*DEEN-E-NABI ﷺ*
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