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Sunday 4 March 2018

*सीरिया का मेसेज गुम रहा है उसके बारे में कुछ वज़ाहत*
بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ
اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ
     आज कल कुछ मेसेज गुम रहे है सीरिया के बारे में की "24 घंटे इसे dp पे लगाओ" "आज यौमे दुआ दिन है सीरिया के लिये दुआ करे"
     अव्वल तो में ये कहूँगा की उस dp को रखने से फायदा क्या हासिल होगा? वेसे मुझे जिन लोगो ने ऐसे मेसेज किये मेने उनसे ये सवाल किया तो कोई कोई मुझे रिप्लाय दिए की "हमें पता नहीं।" तो जब आप को उसका इल्म नहीं तो ऐसे मेसेज क्यू भेजते हो?
     और रहा दूसरा मेसेज यौमे दुआ दिन वाला, तो मेने उनसे पूछा की "यानी आप सिर्फ आज के दिन ही उनके लिये दुआ करेंगे ?" किसी का रिप्लाय नहीं आया।
     यानी हम सर्फि whatsapp पे ही दुआ करवाते रहेंगे? क्या यही सिखाया है हमारे आक़ा ﷺ ने हमें?
     क्या हमने ये सोचा की बार बार आज हम मुसलमानो पे जो मुसीबते क्यूं आती है?
     अल्लाह इर्शाद फ़रमाता है "तुम पे जो मुसीबते आती है वो तुम्हारे गुनाहों की वजह से है"

     अव्वल तो हमें ऐसे मेसेज से दूर करना चहिये। इस बात का ख्याल रखे की कोई भी मेसेज जो इस्लाम से जुड़ा हुआ हो उसे बिना सोचे आगे फॉरवर्ड न करे।
     और सबसे अहम बात ये के आज हम पे जो मुसीबते है वो हमारी वजह से ही है, और हम दुसरो पे उंगलियां उठाते है।
     आज हम दीन से दूर, नमाज़ से दूर, क़ुरआन से दूर, ज़िक्रो वज़ाइफ से दूर, और दुन्या से क़रीब हो गए। हमारे आक़ा ने फ़रमाया ये (दुन्या) दारुल अमल है और आख़िरत दारुल जज़ा। लेकिन हम ने अपनी ज़िन्दगी को दुन्यवी उमुर ऐसा मशरूफ कर लिया है की आख़िरत के बारे में सोचने का वक़्त ही नहीं मिलता। बे फ़ुज़ूल मेसेज भेजने का वक़्त है पर दुरुदे पाक के ज़िक्र का वक़्त नहीं, दोस्तों से गप्पे लड़ाने का वक़्त है पर नमाज़ पढ़ने का वक़्त नहीं।
     अब आप ही सोचे हम पे मुसीबतें क्यूं न आए???

     अगर सही में हम चाहते है की आज मुसलमानो से मुसीबते दूर हो तो हमें उसके लिये कुछ करना पड़ेगा..? हमे दिन के 24 घंटो में से सिर्फ 2.5 घंटा निकालकर नमाज़ अदा करनी है। और हर नमाज़ बाद दुआ करे, दुआ में आप जो भी जाइज़ चीज़ मांगे वो आप की मर्ज़ी, पर आखिर में हमें 3 दुआओं को बढ़ाना है।
     (1) या अल्लाह आज दुन्या में मुसलमानों पर बहुत ज़ुल्म हो रहे है, उन्हें ज़ुल्म से नाज़त दिला और जालिमो को हलक करदे।
     (2) या अल्लाह हमने जो भी दुआऐं की है वो तमाम मोमिनों के हक़ में क़ुबूल फरमा।
     (3) या अल्लाह मेरे वालिदैन की और तमाम मोमिनों की मगफिरत फरमा।

      दुआ में हमें "में" अल्फ़ाज़ को निकल कर "हम" को रख देना है। जेसे "या अल्लाह मेरी मगफिरत फरमा" उसके बजाए या अल्लाह हमारी मगफिरत फरमा।
     अगर लिखने में कोई गलती हुई हो या कसी का दिल दुख हो तो मुआफ़ी चाहूँगा 🙏🏽
جزاك الله خيرا
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मिट जाऐ गुनाहो का तसव्वुर ही दुन्या से,
गर होजाए यक़ीन के.....
*अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह देख रहा है...*
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