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Monday 8 August 2016

तफ़सीरे अशरफी


हिस्सा-60
*_सूरए बक़रह, पारह 01_*
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*आयत ⑤⑨, तर्जुमह*
तो बदल डाला जिन्होंने ने अंधेर कर रखा था बात को उसकी दूसरी बोली से, जो सिखाई गई थी उन्हें। तो उतारा हमने उन पर, जिन्होंने अंधेर मचाया था, अज़ाबको आसमान से, के वो नाफ़रमानी करते जा रहे थे।

*तफ़सीर*
     मगर बनी इस्राइल शरारत पर उत्तर आये, तो इस वादा व करम से कोइ फायदा हासिल न किया। बल्कि सरकशी करते हुए बदल डाला हमारी बात को, हमारी तालीम के खिलाफ, उसकी दूसरी बोली से, जो सिखाई गई थी उन्हें।
     हुक्म हुआ था "हित्ततुन" का। वो मज़ाकियो की तरह "हिन्ततून" "हब्बतुन फि शअरतीन" (यानी गेहू, गेहू बालियोके दाने) बकने लगे। तो इस ना फ़रमानी पर उतारा अज़ाब हमने उन जालिमो पर, जिन्होंने इस किस्म का अंधेर मचाया था, जिससे 70,000 बनी इस्राइल मर गये।
    ये सज़ा इस लिये दी गई के वो ना फ़रमानी करते जा रहे थे। बार बार ना फ़रमानी करते जा रहे थे और हुक्म के खिलाफ चलते थे।
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खादिमे दिने नबी ﷺ, *मुहम्मद मोईन*
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*​DEEN-E-NABI ﷺ*
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