*#15
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*
*_सूरतुल बक़रह, आयत ⑤_*
वही लोग अपने रब की तरफ़ से हिदायत पर हैं और वही मुराद को पहुंचने वाले।
*_सूरतुल बक़रह, आयत ⑥_*
बेशक वो जिन की क़िसमत में कुफ्र है उन्हें बराबर है चाहे तुम उन्हें डराओ या न डराओ वो ईमान लाने के नहीं।
*तफ़सीर*
अल्लाह वालों के बाद, अल्लाह के दुश्मनों का बयान फ़रमाना हिदायत के लिये है कि इस मुक़ाबले से हर एक को अपने किरदार की हक़ीक़त और उसके नतीजों या परिणाम पर नज़र हो जाए.
यह आयत अबू जहल, अबू लहब वग़ैरह काफ़िरों के बारे में उतरी जो अल्लाह के इल्म के तहत ईमान से मेहरूम हैं, इसी लिये उनके बारे में अल्लाह तआला की मुख़ालिफ़त या दुश्मनी से डराना या न डराना दोनों बराबर हैं, उन्हें फ़ायदा न होगा.
मगर हुज़ूर की कोशिश बेकार नहीं क्योंकि रसूल का काम सिर्फ़ सच्चाई का रास्ता दिखाना और अच्छाई की तरफ़ बुलाना है. कितने लोग सच्चाई को अपनाते है और कितने नहीं, यह रसूल की जवाबदारी नहीं है, अगर क़ौम हिदायत क़ुबूल न करे तब भी हिदायत देने वाले को हिदायत का सवाब मिलेगा ही.
इस आयत में हुज़ूर (अल्लाह के दुरूद व सलाम हो उनपर) की तसल्ली की बात है कि काफ़िरों के ईमान न लाने से आप दुखी न हों, आप की तबलीग़ या प्रचार की कोशिश पूरी है, इसका अच्छा बदला मिलेगा. मेहरूम तो ये बदनसीब है जिन्होंने आपकी बात न मानी.
*कुफ़्र के मानी :* अल्लाह तआला की ज़ात या उसके एक होने या किसी के नबी होने या दीन की ज़रूरतों में से किसी एक का इन्कार करना या कोई एेसा काम जो शरीअत से मुंह फेरने का सुबूत हो, कुफ्र है.
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*DEEN-E-NABI ﷺ*
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बेशक वो जिन की क़िसमत में कुफ्र है उन्हें बराबर है चाहे तुम उन्हें डराओ या न डराओ वो ईमान लाने के नहीं।
*तफ़सीर*
अल्लाह वालों के बाद, अल्लाह के दुश्मनों का बयान फ़रमाना हिदायत के लिये है कि इस मुक़ाबले से हर एक को अपने किरदार की हक़ीक़त और उसके नतीजों या परिणाम पर नज़र हो जाए.
यह आयत अबू जहल, अबू लहब वग़ैरह काफ़िरों के बारे में उतरी जो अल्लाह के इल्म के तहत ईमान से मेहरूम हैं, इसी लिये उनके बारे में अल्लाह तआला की मुख़ालिफ़त या दुश्मनी से डराना या न डराना दोनों बराबर हैं, उन्हें फ़ायदा न होगा.
मगर हुज़ूर की कोशिश बेकार नहीं क्योंकि रसूल का काम सिर्फ़ सच्चाई का रास्ता दिखाना और अच्छाई की तरफ़ बुलाना है. कितने लोग सच्चाई को अपनाते है और कितने नहीं, यह रसूल की जवाबदारी नहीं है, अगर क़ौम हिदायत क़ुबूल न करे तब भी हिदायत देने वाले को हिदायत का सवाब मिलेगा ही.
इस आयत में हुज़ूर (अल्लाह के दुरूद व सलाम हो उनपर) की तसल्ली की बात है कि काफ़िरों के ईमान न लाने से आप दुखी न हों, आप की तबलीग़ या प्रचार की कोशिश पूरी है, इसका अच्छा बदला मिलेगा. मेहरूम तो ये बदनसीब है जिन्होंने आपकी बात न मानी.
*कुफ़्र के मानी :* अल्लाह तआला की ज़ात या उसके एक होने या किसी के नबी होने या दीन की ज़रूरतों में से किसी एक का इन्कार करना या कोई एेसा काम जो शरीअत से मुंह फेरने का सुबूत हो, कुफ्र है.
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