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Sunday 24 July 2016

*तफ़सीरे अशरफी*
हिस्सा-46
*सूरए बक़रह, पारह 01*
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*आयत ④④_तर्जुमह*
क्या हुक्म देते हो लोगो को नेकीका और भूल जाते हो खुद अपने को, हालांके तुम तिलावत करो किताब की। तो क्या अक्ल से काम नही लेते ?

*तर्जुमह*
     तुम लोग भी अजीब हो। जब अय क़अब इब्ने अशरफ और सारे यहूदियो ! तुमसे पूछा गया रसूले पाक के बारेमे, तो पहला जवाब तुम्हारा ये था के लोगो ! ये रसूल बरहक़ है। उनकी पैरवी करो।
     और जब तुम्हारे पैरवी करने की नोबत आई, तो मुकर गये। तो क्या हुक्म देते हो दूसरे लोगो को नेकी की के पैरवी करे रसूल की और नेक हो जाए और अपने हक़ में भूल जाते हो खुद अपने को और पैरवी के बजाए इनकार करते हो। हालांके तुम अन्जान नही हो। बल्कि तुम तिलावत किया करो अपनी किताब तौरेत की। इस नादानी का क्या ठिकाना है ? तो क्या अक्ल से काम नही लेते ? मामूली इन्सान की समज बुझ भी खो चुके हो ?
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