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Wednesday 20 July 2016

तफ़सीरे अशरफी


हिस्सा-50
*सूरए बक़रह, पारह 01*

*आयत ④⑧, तर्जुमह*
और डरो उस दिनको, के न बदला हो कोई किसी ना-कस का कुछ, और न क़बूल की जाए किसी ना-कस की सिफारिश, और न ली जाए उस ना-कस से रिश्वत, और न वो मदद दिये जाए।

*तफ़सीर*
     और डरो और सोच कर थर्राओ इस क़यामत के दिन को जिस दिन मुसलमानो को क्या पड़ी है के तुम्हारी कोई बिगड़ी बनाए, तुम्हारे बदले कुछ भुगते। तुम खुद अपनी अंखसे देख लोगे के क़यामत के दिन न बदला हो कोई मुसलमान किसी ना-कस काफ़िर का कुछ, और अगर तुम मेसे एकने दूसरे की सिफारिस की, तो तुम सब लोग ना-कस के ना-कस हो और काफ़िर की कोई सिफारिश, के हर काफ़िर शफ़ाअत करने और शफ़ाअत किये जानेसे महरूम है,
     और अगर तुम अपनी कचेरियो का अंदाज़ देख कर ख्याल करो के रिश्वत से काम चल जाएगा, तो याद रखो, क़यामत के दिन खुद देखोगे के न ली उस किसी ना-कस काफ़िर से कोई रिस्वत। भले अपने बराबर का हिरा या क़ीमती से क़ीमती चीज़ देना चाहे।
     और इसका भी मौका न होगा के तुम्हे मददगारों की कुमक पोहचे। क्यू के काफिरो के लिये ये तय है के न किसीकी मदद कर सके और न वो मदद दिये जाए।

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