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Friday 3 March 2017

*तर्जमए कन्ज़ुल ईमान व तफ़सीरे खज़ाइनुल इरफ़ान* #161
*بِسْــــــمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِىْمِ*
*اَلصَّــلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ اللّٰه ﷺ*

*_सूरतुल बक़रह, आयत ②①⑦_*
     तुमसे पूछते हैं माहे हराम में लड़ने का हुक्म  (1) तुम फ़रमाओ इसमें लड़ना बड़ा गुनाह है  (2) और अल्लाह की राह से रोकना  और उसपर ईमान न लाना  और मस्जिदे हराम से रोकना और इसके बसने वालों को निकाल देना (3) अल्लाह के नज़्दीक ये गुनाह उससे भी बड़े हैं और उनका फ़साद (4) क़त्ल से सख़्ततर है (5) और हमेशा तुमसे लड़ते रहेंगे यहां तक कि तुम्हें तुम्हारे दीन से फेर दें अगर बन पड़े (6) और तुममें जो कोई अपने दीन से फिरे, फिर काफ़िर होकर मरे तो उन लोगों का किया अकारत गया दुनिया में और आख़िरत में (7) और वो दोज़ख़ वाले हैं उन्हें उसमें हमेशा रहना.

*तफ़सीर*
     (1) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने अब्दुल्लाह बिन जहश के नेतृत्व में मुजाहिदों की एक जमाअत रवाना फ़रमाई थी. उसने मुश्रिकों से जंग की. उनका ख़याल था कि वह दिन जमादियुल आख़िर का अन्तिम दिन है. मगर दर हक़ीक़त चाँद 29 को हो गया था, और वह रजब की पहली तारीख़ थी. इस पर काफ़िरों ने मुसलमानों को शर्म दिलाई कि तुमने पाबन्दी वाले महीने में जंग की और हुज़ूर से इसके बारे में सवाल होने लगे. इस पर यह आयत उतरी.
     (2) मगर सहाबा से यह गुनाह वाक़े नही हुआ, क्योंकि उन्हें चाँद होने की ख़बर ही न थी. उनके ख़याल में वह दिन माहे हराम, यानी पाबन्दी वाले महीने रजब का न था. पाबन्दी वाले महीनों में जंग न करने का हुक्म “उक़्तुलुल मुश्रिकीना हैसो वजद तुमूहुम” यानी मुश्रिकों को मारो जहां पाओ (9 : 5) की आयत द्वारा स्थगित हो गया.
     (3) जो मुश्रिकों से वाक़े हुआ कि उन्होंने हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और आपके सहाबा को, हुदैबिया वाले साल, काबए मुअज़्ज़मा से रोका और मक्के में आपके क़याम के ज़माने में आपको और आपके साथियों को इतनी तकलीफ़ें दीं कि वहाँ से हिजरत करना पडी.
     (4) यानी मुश्रिकों का, कि वह शिर्क करते हैं और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और मूमिनों को मस्जिदें हराम से रोकते हैं और तरह तरह के कष्ट देते हैं.
     (5) क्योंकि क़त्ल तो कुछ हालतों में जायज़ होता है, और कुफ़्र किसी हाल में जायज़ नहीं. और यहाँ तारीख़ का मशकूक यानी संदेह में होना मुनासिब वजह है. और काफ़िरों के कुफ़्र के लिये तो कोई वजह ही नहीं है.
     (6) इसमें ख़बर दी गई कि काफ़िर मुसलमानों से हमेशा दुश्मनी रखेंगे. कभी इसके ख़िलाफ़ न होगा. और जहाँ तक उनसे संभव होगा वो मुसलमानों को दीन से फेरने की कोशिश करते रहेंगे, “इनिस्तताऊ” (अगर बन पड़े) से ज़ाहिर होता है कि अल्लाह तआला के करम से वो अपनी इस मुराद में नाकाम रहेंगे.
     (7) इस आयत से मालूम हुआ कि दीन से फिर जाने से सारे कर्म बातिल यानी बेकार हो जाते हैं. आख़िरत में तो इस तरह कि उनपर कोई पुण्य, इनाम या सवाब नहीं. और दुनिया में इस तरह कि शरीअत मुर्तद यानी दीन से फिर जाने वाले के क़त्ल का हुक्म देती है. उसकी औरत उसपर हलाल नहीं रहती, वो अपने रिश्तेदारों की विरासत पाने का अधिकारी नहीं रहता, उसका माल छीना या लूटा या चुराया जा सकता है. उसकी तारीफ़ और मदद जायज़ नहीं. (रूहुल बयान वग़ैरह).
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मिट जाए गुनाहो का तसव्वुर ही दुन्या से,
गर होजाए यक़ीन के.....
*अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह देख रहा है...*
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